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वंदना की। क्योंकि उनके धर्मलाभ रूपी आशीष अधिक सिद्धि प्रदान करने वाले हैं। उसके बाद श्रेष्ठ वेषधारी, आनंदी और पुरुषार्थ मात्र के आभूषण वाले चक्रवर्ती ने नगर के बाहर सीमान्त भाग में छावनी बनाई। जैसे लोहमय पदार्थ चुंबक से खिंच कर उसके निकट आता है वैसे उस अवसर पर भेरी के नाद से खिंचकर सब देशों और गाँवों के अधिपति आ-आकर वहाँ अयोध्या में भरतेश्वर की सेवा में उपस्थित हो गए। फिर प्रयाण हेतु पतिपुत्रवन्त रमणियों ने और कुलीन कन्याओं ने मांगलिक के लिए अखंड-अक्षतों से आदरपूर्वक बधाई दी। भाट, चारण, बंदीजन आदि उस अवसर पर स्तुति करने लगे और देवता सेवा करने लगे। कुलवधुएं मंगल गीत गाने लगी और महाजन लोग उनके दर्शन करने लगे। इस प्रकार मांगलिकों से कृतार्थ हुए भरतराजा रण यात्रा का आरंभ करने के लिए, प्रात:काल में सूर्य जैसे पूर्वांचल पर चढता है, उसी प्रकार प्रात:काल में ही सुरगिरि नामके गजेन्द्र पर चढे। यह गजरत्न बहुत ऊँचा था। वह चक्रवर्ती के यश के जैसा उज्ज्वल था।
अमार्ग में मार्ग बनाते, भरतेश्वर नित्य योजन-योजन प्रयाण करते कई दिनों में बहुलि देश के निकट आ पहुँचे। भरतराजा ने अपनी सेना के लिए आवास व्यवस्था हेतु कुछ पुरुषों को आगे भेजा था, उस समय उन्होंने भरत के पास लौटकर हर्ष से विज्ञप्ति की, स्वामी! आप जय प्राप्त करें। यहाँ से उत्तर दिशा में गंगा नदी के किनारे वृक्षों की शाखाओं से सूर्य को ढंकने वाला एक विशाल वन है, और उस वन में सुवर्ण तथा मणि-रत्नमय और मनोहारी, ऐसा पूज्य पिता श्री ऋषभदेव भगवंत का एक सुंदर प्रासाद है। उस प्रासाद में उत्तम बुद्धि वाले कोई संयमी, त्यागी, और विद्वानों के समूह मे अलंकार रूप मुनिराज हृदय में ध्यान धरते हुए विराजमान हुए हैं। उन सेवकों के ये वचन सुनकर, सुकृत में सर्व प्रथम आदर करने वाले भरतराजा तुरंत श्री आदीश्वर प्रभु को वंदना करने हेतु उस वन में गए और विधिवत जिनेश्वर को नमन
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त्रितीर्थी