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शत्रुजय नदी की महिमा
एक समय भरत नरेश्वर और शक्र इंद्र एक आसन पर बैठ कर परस्पर कथामृत के रस में प्रीतिपूर्वक मग्न थे। विमलगिरि के दोनों शिखरों के मध्य में मर्यादा के समान जुडी हुई पवित्र शत्रुजयी नदी को देख कर भरतनरेश्वर ने शक्र इंद्र से पूछा, "यह कौनसी नदी है ?" उत्तर में इंद्र ने कहा, “हे चक्रवर्ती ! यह शत्रुजया नामक नदी है, और शत्रुजय गिरिराज के आश्रय से लोक में यह नदी गंगा से भी अधिक फल प्रदान करने वाली है । इस नदी के द्रहों का माहात्म्य जो अलग-अलग कहने में आवे तो उसका यथार्थ वर्णन करने में सचमुच बृहस्पति के भी सो वर्ष चले जावें। पूर्व-चोवीसी में केवलज्ञानी नामके प्रथम तीर्थंकर हो चुके हैं, उनका स्नात्र महोत्सव करने के लिए ईशानपति ने गंगा नदी प्रगट की थी। वह वैताढ्य पर्वत से प्रारंभ हो इस पृथ्वी के अंदर गुप्त रूप से बहती थी। फिर कितने ही काल के बाद वह नदी शत्रुजयगिरि के पास प्रगट होने से (आने से) वही शत्रुजया के नाम से प्रसिद्ध हो गई है। जिसके जलस्पर्श से कांति, कीर्ति, लक्ष्मी, बुद्धि, धृति, पुष्टि और समाधि प्राप्त होती है, और सिद्धियाँ वश में होती हैं; हंस, सारस और चक्रवाक आदि जो पक्षी इसके जल का स्पर्श करते हैं, उन पक्षियों को भी पाप का मल स्पर्श नहीं करता। इस सरिता की मृत्तिका विलेपन करने से अंग के बडे रोगों को हरती है, और कादंब जाति की औषधि के साथ अग्नि में फूंकने से वह माटी सुवर्णरूप हो जाती है । इस पवित्र नदी के तीर के वृक्षों के फलों का जो स्वाद लेते हैं, और छ: मास तक जो इस नदी का जल पीते हैं, वे लोग वात,
त्रितीर्थी