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अपनी बात
प्रस्तुत पुस्तक के लेखन में जैन साहित्य के तीन पुराणों से सामग्री प्राप्त की गई है। लेखक इन तीनों पुराणों के लेखकों, अनुवादकों आदि की विस्तार से जानकारी देना अपना परम कर्तव्य समझता है एवं उनके प्रति आभार प्रकट करता है।
पांडव पुराण के लेखक श्रीमद् भट्टारक शुभचंद्र स्वामी हैं। इस महापुराण की रचना विक्रम संवत् 1608 की भाद्र शुक्ल दोज को राजस्थान प्रांत के बागड़ क्षेत्र के सागवाड़ नगर के श्री आदिनाथ दिगंबर जैन मंदिर में पूर्ण की गई। वे लिखते हैं कि मूलसंघ में पद्मनंदी नाम के आचार्य हुए। फिर उसके पश्चात् क्रमशः सकलकीर्ति, भुवनकीर्ति आचार्य हुए। तदुपरांत चन्द्रसूरि एवं विजयकीर्ति आचार्य हुए। उन्हीं के पद चिन्हों पर चलने वाले सर्वश्रेष्ठ श्रीमद् भट्टारक शुभचन्द्र हुए। इन्हीं यतीन्द्र शुभचन्द्र जी ने पाण्डव पुराण की रचना की। यह पुराण मूल रूप में पद्य रूप में है। इसी पुराण का लोकप्रिय नाम जैन महाभारत भी है। श्री शुभचन्द्राचार्य के ब्रह्मचारी शिष्य श्रीपाल थे। यह बड़े ही प्रतिभाशाली, विद्वान, तर्कशास्त्री व शुद्धाशुद्धियों के पूर्ण ज्ञाता थे। इन्हीं श्रीपाल महोदय ने पाण्डव पुराण का परिमार्जन कर यह अर्थ युक्त आदर्श भाषा टीका लिखी। पाण्डव पुराण की जिस प्रति का लेखक ने सहारा लिया है, उसके संपादक श्री नन्दलालजी जैन विशारद हैं। इस प्रति का प्रकाशन जैन साहित्य सदन, श्री दिगम्बर जैन लाल मंदिर, चांदनी चौक, दिल्ली से हुआ है । पुराण के अंत में पुराण के मूल लेखक अपनी लघुता प्रकट कर लिखते हैं कि मैं उन साधु पुरुषों का आह्वान करता हूं; जिनका स्वभाव इस ग्रंथ के दोषों का परिमार्जन कर अन्य को भी संतोष प्रदान करने का है। वे लिखते हैं कि शास्त्रों की दृष्टि से जो अशुद्धियां इस पुराण में रह गई हों; विज्ञजन उन्हें उदारता पूर्वक सुधार लें।
दूसरे पुराण 'हरिवंश पुराण' के मूल कर्ता आचार्य
संक्षिप्त जैन महाभारत 5