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________________ कंस जन्म एक बार गंगा व गंधावती नदियों के संगम पर एक विशिष्ट तापसी के आश्रम में गुणभद्र व वीरभद्र नाम के चारण ऋद्धिधारी मुनि पधारे। इन मुनिवृंदों ने उस तापसी को उसकी जटाओं में पल रहे जूं, स्नान के समय मत्स्य व तापसी के कारण ईंधन में मरते बेकसूर जीवों को दिखाया; जिससे उस तापसी का हृदय परिवर्तन हो गया व उसने मुनिधर्म अंगीकार कर लिया। यही मुनिराज कभी मथुरा नगरी पधारे। वहां के नरेश उग्रसेन मुनि श्री के दर्शनों को गये व दर्शन करके नगर में घोषणा करवा दी कि महाराज श्री केवल हमारे ही महल में भिक्षा ग्रहण करेंगे; अन्यत्र नहीं। पर एक-एक माह के अंतर से तीन बार मुनि श्री के आहार चर्या हेतु आने पर भी-विभिन्न कारणों से राजकार्यों में व्यस्तता व भूल के कारण-उन मुनिराज को महलों में आहार नहीं मिला। तब प्रजा से ये सुनकर कि राजा न तो स्वयं भिक्षा देता है, और न ही दूसरों को देने देता है- मुनि श्री को क्रोध आ गया व उन्होंने निदान किया कि मैं इस राजा का पुत्र होकर इस राजा का निग्रह कर इसका राज्य प्राप्त करूं। ऐसा निदान करने पर उन मुनिराज की मृत्यु हो गई तथा वे निदान बंधानुसार राजा उग्रसेन की रानी पदमावती के गर्भ में आ गये। उनके गर्भ में आने पर रानी पदमावती को बुरे स्वप्न आने लगे। पुत्र के पैदा होने पर माँ ने देखा कि वह क्रूर दृष्टि से अपने ही ओंठ डस रहा है। माता-पिता ने उस पुत्र के लक्षणों को विलक्षण जानकर उससे छुटकारा पाने का विचार किया। उन्होंने एक कांस की संदूक बनाई, उसमें पुत्र को रखा, साथ में एक परिचय पत्र भी रखा व उसे यमुना में विसर्जित करवा दिया। यह कांस की संदूक बहती हुई कौशांबी नगरी के समीप एक मदिरा बेचने वाली कलारन को मिली। इस कलारन का नाम मंजोदरी/मंदोदरी था। बड़े ही लाड़ प्यार से उसने इस बालक को पाल पोसकर बड़ा किया व उसका नाम कंस रख दिया; क्योंकि यह बालक उसे कांस संक्षिप्त जैन महाभारत.43
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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