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________________ आदि संभ्रांत नारियों ने भी आर्यिका प्रमुख राजुल / राजमति के पास जाकर आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। सभी पांडव नासिका के अग्रभाग पर ध्यान केंद्रित कर उग्र तपश्चरण में लीन हो गये व अपने पूर्व संचित कर्मों का तेजी से विनाश करने लगे। सभी नवदीक्षित आर्यिकायें भी तपश्चरण में लीन रहने लगीं व समवशरण में बैठकर धर्मपान करने लगी। सभी पांडवों ने द्वादश प्रकार के तपों की साधना से विविध समृद्धियां ऋद्धियों-सिद्धियों को अनायास ही शीघ्र प्राप्त कर लिया। वे सभी द्वादश भावनाओं का चिंतवन करते थे व घोर उपसर्गों को समतापूर्वक सहन कर परीषहों पर विजय प्राप्त करते थे। सभी पांडव विहार करते-करते सौराष्ट्र देश जा पहुँचे । वे वहां शत्रुंजय पर्वत पर जाकर ध्यान में लीन हो गये व कायोत्सर्ग करने लगे। वे सभी परम तपस्वी व परम योगी बन गये। एक दिन वहां पर दुर्योधन का भांजा कुमुर्धर/क्षुयवरोधन आया। वह पांडवों का घोर विरोधी एवं अत्यन्त क्रूर स्वभावी था। वहां पहुँचकर उसने वहां के कुछ तपस्वियों को तपस्यारत देखा। वहीं पर वह पांडवों को तपस्यारत देखकर उन्हें शीघ्र ही पहचान गया। यह सोचने लगा कि इन पांडवों ने ही मेरे मामा दुर्योधन को यमलोक पहुँचाया था। इसलिए पांडवों को देखते ही इसके मन में प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी। उसने अपने मन में विचार किया कि यह पांडवों से बदला लेने का सर्वश्रेष्ठ अवसर है। ध्यान में मग्न होने के कारण ये पांडव युद्ध भी नहीं कर सकेंगे। ऐसा मन में विचार कर उसने बहुत सारे लोहे के आभूषण बनवाये। बाद में उसने उन आभूषणों को अग्नि समान गर्म करके उन गहनों को पांडवों के अंग-प्रत्यंगों में पहना दिये। इससे पांडवों की देह काष्ट की भांति जलने लगी। पांडवों ने उस उग्र उपसर्ग की वेदना को भी अपने कर्मों का फल मानकर बड़े ही शांत भावों के साथ सहन किया एवं गहन ध्यान का आश्रय लिया। जैसे-जैसे उनके शरीर में निरंतर दाह बढ़ रही थी, वैसे-वैसे उनके ध्यान में उग्रता बढ़ती जा रही थी। वे सोचते कि यह अग्नि केवल इस मूर्तिमान शरीर को ही नष्ट कर सकती है, संक्षिप्त जैन महाभारत 175
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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