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द्वारिका का भस्म होना
बारह वर्ष बीत चुके हैं, इस भ्रम में पड़ कर द्वीपायन मुनि कठोर तपश्चरण करते हुए बारहवें वर्ष में ही द्वारिका की ओर आ गये एवं द्वारिका से कुछ दूर स्थित पर्वत पर आतापन योग धारण कर प्रतिमा योग से विराजमान हो गये। उसी समय वन क्रीड़ा से थके प्यास से पीड़ित शंब आदि यादव कुमारों ने कादंब वन में स्थित उन्हीं कुंडों में स्थित जल को पी लिया जिसमें श्रीकृष्ण व बलदेव ने शराब फिकवाई थी। उस शराब युक्त जल को पीकर यादव कुमार विकार को प्राप्त हो गये एवं द्वारिका की ओर चले। तभी उन्होंने मार्ग में तपस्यारत मुनि द्वीपायन को देखा तथा नशे को प्राप्त होकर तब तक उनके ऊपर पत्थर बरसाये, जब तक कि वे घायल होकर पृथ्वी पर गिर नहीं पड़े। यह सब देखकर द्वीपायन मुनि अति क्रोध को प्राप्त हो गये व उन्होंने अपनी भृकुटि चढ़ा ली। तभी किसी ने श्रीकृष्ण व बलदेव के पास जाकर इस घटना के बारे में उन्हें विस्तार से बतलाया। तब श्रीकृष्ण व बलदेव किसी अनहोनी घटना से आशंकित होकर द्वीपायन मुनि का क्रोध शांत कराने हेतु उनकी ओर दौड़े व उनसे जाकर कुमारों द्वारा किये गये कृत्य के लिए क्षमा याचना की। पर मुनि द्वीपायन अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे। तब उन्होंने दो अंगुलियों का इशारा करते हुए कहा अब तो केवल तुम दोनों ही बच सकते हो, और कोई नहीं। तभी मुनि द्वीपायन क्रोध से अपने मूल शरीर को छोड़ मिथ्यादृष्टि अग्नि कुमार देव हुए एवं विभंगावधि ज्ञान से अपने मरण को निश्चित जानकर रौद्र ध्यान धारण कर संपूर्ण द्वारिका नगरी को भस्म कर दिया।
इसी बीच शंबूकुमार द्वारिका से निकल कर मुनि दीक्षा धारण कर गिरनार पर्वत की गुफा में तप करने लगे थे। द्वारिका को जलती देखकर श्रीकृष्ण व बलदेव ने द्वारिका का कोट तोड़ डाला एवं समुद्र के जल से अग्नि को बुझाने का प्रयास करने लगे। पर जब उन्होंने अपने आपको द्वारिका में
संक्षिप्त जैन महाभारत 169