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द्रौपदी उस राजा की इन बातों को सुनकर अपने को असहाय समझकर रोने लगी व सोचने लगी कि यदि मुझे अपने सतीत्व की रक्षा के लिए प्राण भी देना पड़ें, तो मैं सहर्ष दे दूंगी। पर मैं इस पापी के साथ नहीं रहूँगी। तब द्रौपदी ने साहस बटोरकर उस पद्मनाभ से कहा- 'रे अधम! क्या तुझे नहीं मालूम कि मेरे रक्षक पांच शूरवीर पांडव हैं। बलदेव व श्रीकृष्ण मेरे भाई हैं। धनुर्धारी अर्जुन मेरे पतिदेव हैं। देवर भीम अतिशय वीर हैं व नकुल व सहदेव यमराज के समान हैं। समस्त पृथ्वी पर थल व जल की बाधा बिना उनके रथ विचरण करते हैं। इसलिए तेरा भला इसी में है कि तू मुझे पांडवों के पास वापिस भिजवा दे। अन्यथा तुम्हारा क्या होगा? तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। जब इतना कहने पर भी पद्मनाभ वहां से नहीं गया, तो द्रौपदी ने कहा- कि हे राजन्! यदि मेरे स्वजन एक माह के भीतर यहां नहीं आते हैं? तो फिर तुम अपनी इच्छानुसार कार्य करना। इतना कहने के बाद द्रौपदी ने अर्जुन के दर्शन न होने तक आहार का त्याग कर दिया। द्रौपदी के यह वचन सुनने के बाद पद्मनाभ वहां से चला गया। फिर द्रौपदी निश्चिंत होकर रहने लगी व अपने पति की प्रतीक्षा करने लगी।
उधर प्रात:काल होने पर द्रौपदी हरण की सूचना से संपूर्ण हस्तिनापुर में खलबली गच गई। इसी बीच एक अपरिचित व्यक्ति ने द्वारिका में श्रीकृष्ण को द्रौपदी हरण की सूचना दी। तब श्रीकृष्ण ने सेना को युद्ध के लिए तैयार कर लिया। तभी नारद द्रौपदी की हालत से दुःखी होकर पश्चाताप करने लगे व सीधे द्वारिका श्रीकृष्ण के पास पहुंचे। उन्होंने श्रीकृष्ण को द्रौपदी हरण का सारा वृतांत विस्तार से बता दिया व फिर श्रीकृष्ण से बोले कि सेना को तैयार करना व्यर्थ है। घातकीखंड द्वीप यहां से पहुँचा ही नहीं जा सकता। तब श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर जाकर विस्तार से द्रौपदी के हरण की घटना से उन्हें अवगत कराया और बतलाया कि द्रौपदी घातकीखंड द्वीप की अमरकंकापुरी नगरी में राजा पद्मनाभ के यहां हैं। वह वहां अत्यन्त दुःखी है व उसने शीलवत 156 - संक्षिप्त जैन महाभारत