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ओर आया, तो उस चक्ररत्न ने नेमि प्रभु के साथ-साथ श्रीकृष्ण की परिक्रमा दी एवं बाद में श्रीकृष्ण के दाहिने हाथ में स्थित हो गया। उसी समय आकाश में दुंदुभि बजने लगी एवं आकाश से पुष्पवृष्टि होने लगी व देवता कहने लगे कि यह श्रीकृष्ण के रूप में नौवां नारायण प्रकट हुआ है। यह सब देखकर यादवों की सेना ने हर्षोल्लास के साथ जय-जय ध्वनि की। तब यह सब देखकर जरासंध विचार मग्न होकर सोचने लगा कि आज मेरा पौरूष खंडित हो गया। तब यह सब कहकर वह लक्ष्मी को धिक्कारने लगा। तभी जरासंध ने श्रीकृष्ण से चक्र चलाने को कहा। तब श्रीकृष्ण ने जरासंध से कहा- हे जरासंध! यदि तुम चाहो तो मैं अब भी तुम्हें क्षमा कर सकता हूँ। अपनी पराजय स्वीकार कर लो तो परस्पर संधि स्थापित हो जायेगी। तुम्हारे राज्य सुख में किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाया जायेगा।
श्रीकृष्ण के ये मर्मभेदी वचन सुनकर जरासंध ने गर्वोक्ति पूर्वक कहा- तुम यह तथ्य क्यों भूल रहे हो कि तुम एक गोपालक हो एवं मैं एक राजा हूँ। स्वयं मुझे नमस्कार करने के विपरीत तुम मुझे ही नमस्कार करने को कहते हो। यह सर्वथा असंभव है। क्या हुआ, जो मेरे द्वारा निक्षिप्त चक्ररत्न तुम्हारे हस्तगत हो गया। उसका उपयोग करना तुम क्या जानो। चक्री तो कुम्हार भी कहलाता है। परन्तु युद्ध में उस चक्र की क्या सार्थकता हो सकती है। मैं तुम्हें सभी यादवों, चक्र व राजाओं के साथ शीघ्र ही समुद्र में फेंकता हूँ। तब श्रीकृष्ण ने जरासंध का चक्र जरासंध के ऊपर ही चला दिया। जिसने शीघ्र ही जरासंध के मस्तक को विछिन्न कर दिया व उसके वक्षस्थल को चीर डाला। यह देखकर देवों ने आकाश से जयध्वनि कर पुष्प वर्षा की। तभी श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख फूंका। नेमिनाथ, सेनापति व अर्जुन आदि ने भी अपने-अपने शंख फूककर युद्ध में विजयश्री की घोषण की। तब सभी विरोधी सेना श्रीकृष्ण की आज्ञाकारी हो गई।
संक्षिप्त जैन महाभारत. 151