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उसने कर्ण के अभिमान को चूर्ण विचूर्ण कर दिया व कलिंग के हस्ती को मार दिया। गुरु द्रोणाचार्य भी अभिमन्यु के युद्ध कौशल को देखकर स्तंभित रह गये। तभी वीर अक्षयकुमार युद्ध क्षेत्र में अभिमन्यु के सामने आया व उसने दस भयंकर बाणों को निक्षेप कर अभिमन्यु को आहत कर दिया। किन्तु वह शीघ्र ही पुनः उठकर अश्वत्थामा से भिड़ गया व उसे क्लांत कर दिया। अभिमन्यु के इस अदभुत पराक्रम को देखकर कर्ण ने गुरु द्रोणाचार्य से जिज्ञासा की कि हे प्रभो - यह दुद्धर्ष वीर किसी के द्वारा परास्त हो सकता है या नहीं। तब द्रोणाचार्य बोले- जिस वीर ने अकेले ही हजारों वीर सैनिकों का संहार कर दिया, उसे भला कौन निहत कर सकता है।
इस प्रकार अभिमन्यु के रण कौशल की प्रशंसा करने के पश्चात् गुरु द्रोणाचार्य यह कहते हुए आगे बढ़े कि सब मिलकर बलपूर्वक इसे घेरकर इसके धनुष को खंडित कर निष्क्रिय कर दो। सावधान! कहीं हमारे घेरे से मुक्त होकर वह वीर पलायन न करने पावे । परिणाम स्वरूप एक चक्रव्यूह बनाकर सभी ने अभिमन्यु को चारों ओर से बेष्ठित कर लिया एवं सामूहिक रूप से उस पर आक्रमण कर दिया। उस समय उन लोगों ने न्याय-अन्याय का कुछ भी ध्यान नहीं
रखा ।
उन सभी का एक उद्देश्य था - अभिमन्यु का संहार । किन्तु फिर भी अभिमन्यु सबका आक्रमण प्रतिहत करता रहा । किन्तु शीघ्र ही उसकी ध्वजा विच्छिन्न कर दी गई एवं उसके रथ को नष्ट कर दिया गया। अभिमन्यु का सारथी भी निहत हो गया। इस सबके बावजूद अभिमन्यु हताश नहीं हुआ। उसने पदातिक सैनिक के रूप में बज्रदंड धारण कर उन नराधमों के आक्रमण को प्रतिहत किया। किन्तु अंत में जयाद्रि ने अगणित तीक्ष्ण बाणों के द्वारा अभिमन्यु को सरों से बिद्ध कर डाला; जिससे अभिमन्यु प्रति आक्रमण करते-करते भूलुण्ठित हो गया। उसके धराशायी होते ही देवों के हाहाकार से व्योम मंडल तक उद्वेलित हो उठा। तब सभी को निश्चय
134 ■ संक्षिप्त जैन महाभारत