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शल्य नामक विद्याधर प्रद्युम्न से युद्ध को उद्यत हुआ। प्रद्युम्न ने शीघ्र ही शल्य नाम के विद्याधर का रथ नष्ट कर दिया। इसी बीच-शिशुपाल के लघु भ्राता ने आकर प्रद्युम्न के रथ को नष्ट कर उसे मूर्छित कर दिया। जिससे प्रद्युम्न का सारथी पलायन करने लगा। पर शीघ्र ही प्रद्युम्न को चैतन्य लाभ हो गया। प्रद्युम्न ने सारथी को पलायन की चेष्टा करते देख धिक्कारा व कहा कि युद्ध-स्थल से पृष्ठ प्रदर्शन करना घोर पाप है। तुझे ऐसा करते लज्जा नहीं आती। युद्ध के लिए ही तो इस देहयष्टि का उत्तम आहार विहार के द्वारा पालन पोषण किया जाता है। यह कहकर प्रद्युम्न नये रथ पर सवार होकर पुनः उसी से युद्ध करने लगा।
पर इसी बीच श्रीकृष्ण उन दोनों के बीच आ गये। जिसे देखकर जरासंध के पक्ष से शल्य नामक विद्याधर वीर युद्धस्थल में आ गया। उसने भीषण बाण वर्षा की, जिसमें श्रीकृष्ण, उनका सारथी व रथ सभी वद्ध हो गये। तभी रक्तरंजित एक भयानक मायावी व्यक्ति श्रीकृष्ण से आकर कहने लगा कि जरासंध ने युद्ध में सभी पांडवों व यादव वीरों की इहलीला समाप्त कर समुद्रविजय को भी यमलोक पहुँचाकर तुम्हारी द्वारिकापुरी पर कब्जा कर लिया है। अतः तुम व्यर्थ में ही अपने प्राणों की आहुति क्यों देते हो। अतः तुम्हारा भला इसी में है कि तुम युद्ध करना छोड़ दो। यह सब सुनकर श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया। तब वे तिरस्कार व रोषपूर्ण शब्दों में बोले कि रे दुष्ट- तेरे छल-कपट का मुझ पर किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ने वाला। किसमें इतनी शक्ति है जो मेरे रहते पांडवों व यादवों को यमराज के यहां भेज सके। श्रीकृष्ण की यह भर्त्सना सुनकर वह मायावी शीघ्र ही वहां से पलायन कर गया। जब श्रीकृष्ण पुनः धनुष बाण लेकर युद्ध को तत्पर हुए तो इनके सम्मुख पुनः एक भयंकर कपटी राक्षस आकर बोला- तुम यहां युद्ध में व्यस्त हो और उधर बलराम की मृत्यु हो गई है। इस दुखद समाचार को सुनकर कृष्ण पक्ष के सभी विद्याधरों ने युद्ध करना बंद कर दिया। इतना कहकर उस राक्षस ने कपटपूर्वक श्रीकृष्ण के 124 - संक्षिप्त जैन महाभारत