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अभिधान राजेन्द्र कोष का तृतीय भाग
मंगलाचरण वाणिं जिणाणं चरणं गुरुणं, काऊण चित्तिम्भिसुयप्पभावा।
सारं गहीऊण सुयस्यएयं, वोच्छामि मागे तइयम्मि सव्वं॥ तृतीय भाग का प्रारम्भ 'ए' अक्षर से किया गया है और 'छोह' शब्द पर इस भाग को समाप्त किया गया है। इस भाग में १३६३ पृष्ट है। 'ए' यह अक्षर केवल संवोधन, अनुनय, अनुराग आदि में ही काम आता है इसलिये इस पर अन्य कोई शब्द नहीं है।
ओ' वर्ण पृष्ट क्रमांक ७५ से शुरु होकर १६१ पर समाप्त होता है। 'आहोवहि' (ओद्योपधि) शब्द पर।
प्राकृत में ओंकार न होने से ओंकार आदि शब्द कोप में नहीं है। इसी प्रकार 'अ' व 'अः.' पर भी कोई शब्द नहीं है।
___ केवल मात्र ए, ओ, क, ख, ग, घ, च, छ, इन आठ अक्षरों के शब्दों पर ही इस भाग में विवेचन किया गया है।
इस भाग के कुछ मुख्य विषय निम्न है -
‘एगल्लविहा' (एकलविहारी) इस शब्द पर एकलविहारी साधु को क्या-क्या दोप लगते हैं, अशिवादी कारण से एकाकी होने में दोषाभाव, एकलविहारी को प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है।
आगरणा' (अवगाहना) शब्द पर अवगाहना के भेद, औदारिक, वैक्रिय, अहारक, तेजस, और कार्मण इन पाँच शरीरों के क्षेत्र का मान दिया है। कौन-कौन सी गति में कितनी-कितनी जीव की अवगाहना हो सकती है उसका संपूर्ण विवेचन इस कोप में किया है।
कम्म' (कर्म) इस शब्द पर कर्म के सम्बंध में जैन और जैनेत्तर सवकी मान्यताएं अच्छे रूप में प्रदर्शित की है। जीव के साथ कर्म का संबंध, कर्म का अनादित्य, जगत की विचित्रता में कर्म ही कारण है। ज्ञानवर्णीय, दर्शनावर्णीय, वेदनीय, मोहनीय आदि कर्मो का विशद विवेचन किया है। इस शब्द में ३७ विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
किरिया' (क्रिया) शब्द पर क्रिया का स्वरूप, क्रिया का निक्षेप, क्रिया के भेद आदि १८ विपयों पर विस्तार किया गया है।
'केवलणाण' (केवलज्ञान) शब्द पर केवलज्ञान का अर्थ, केवल ज्ञान की उत्पत्ति, सिद्धि, भेद, सिद्ध का स्वरूप, किस प्रकार का केवल ज्ञान होता है इसका निरूपण किया गया है। राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, भक्तकथा करने वालों के लिये केवलज्ञान और केवलदर्शन का प्रतिबंध है इत्यादि विषय बहुत ही मार्मिक
श्रीमद् राजेन्द्रसूरिः ओक महान विभूति की ज्ञान अवं तपः साधना + ४१५