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है कि वह तपस्वी जितना दे सकता था, समाज ने उससे उसका शतांश भी नहीं लिया। मितभाषी, मितभोजी, मितपरिग्रही थे वे। आलस्य वहाँ दर्शन मात्र को भी नहीं था। आत्म शुद्धि के लिए आपने सर्वप्रथम अभिग्रह धारणा करना शुरू किया। इसमे आपको कभी चार, कभी छह और कभी सात दिन तक निराहार रहना पडता था। अभिग्रह के अलावा आप प्रति चातुर्मास में तीन चातुर्मासिक चतुर्दशी का बेला तथा संवत्सरों एवं दीपमालिका का तेला करते थे। वडे कल्प का बेला, प्रतिमास की सुदी १० का एकासना और चैत्री और आसो मास की ओली करते थे। यह तपश्चर्या उन्होंने जीवन भर दण्ड रूप से की। मांगी-तुंगी के बीहड वन, चामुंडवन, स्वर्णगिरी पर्वत ये सभी आप के तपस्या के स्थान थे। साधना की सफलता का ही सुपरिणाम था कि आपको भविष्य की अनेक घटनाएँ अपनी ध्यानावस्था में पहले ही ज्ञात हो जाती थी। इसी साधना के कारण आप संघ पर आए हुए संकटों का तत्काल निवारण कर देते थे।
संवत् १९२६ में राणकपुर में आपने तीन दीक्षा दी। अतियाँ वाई - प्रथम साध्वीजी बनी जिनका नाम अमरीजी रखा गया। दूसरी लक्ष्मीश्रीजी एवं तीसरी कुशलश्रीजी बनी। इस प्रकार सायी संघ की स्थापना हुई। श्रीमद् की साहित्य साधना क्रांतिकारी है। क्रांतिकारी व्यक्ति को कदम-कदम पर खतरा उठाना पडता है। अपने सिद्धांत के मण्डन के लिए आपको रतलाम, अहमदावाद और सूरत में विपक्षियों से शास्त्रार्थ करना पड़ा। प्रत्येक शास्त्रार्थ में आप विजयी हुए। विपक्षियों ने आपको अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट दिये, पर आप आगे बढते ही गए। सामाजिक एकता के लिए आपने अथक प्रयत्न किए। जगह-जगह मतभेदों को मिटाया। इसमें चीरोला एवं उसके आसपास के गांवों का उदाहरण बहुत महत्वपूर्ण है। चीरोला एवं सभी गाँव ढाई सौ वर्षो से जाति से वहिप्कृत थे। गुरुदेव के प्रभाव से यह कठिन समस्या सुलझ गई।
श्रीमद् ने कुल मिलाकर २७ छोटे वडे प्रतिष्ठा, अंजनशलाका आदि समारोह संपन्न करवायें। जालोर के सुवर्णगिरि पर्वत पर जा जैन मंदिर थे उनका उपयोग शस्त्रागारों के रूप में होने लगा था। उन पर जोधपुर राज्य का अधिकार था। पूज्य गुरुदेव ने जोधपुर नरेश को समझा बुझाकर और सत्याग्रह करके इन मंदिरों को अस्त्र-शस्त्रों से मुक्त करवाया। वि. सं. १९३३ माघ शुक्ला सप्तमी को मंदिरजी की प्रतिष्ठा संपन्न हुई एवं ९ उपवास का पारणा हुआ। सं. १९३८ में मोहनखेडा' नामक स्वतंत्र तीर्थ की स्थापना करवाई। प्रतिष्ठा अंजनशलाकाओं में आहोर के बावन जिनालय युक्त गोडी पार्श्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा जो संवत् १९५५ के फाल्गुन वदी ५ को की गई, वडा महत्त्व रखती है। इसी अवसर पर ९५१ जिन बिंबों की प्राण प्रतिष्ठा की गई।
____सं. १९४४ में पारख अंबावीदास मोतीचंद ने शgजय और गिरनार का पैदल छहरीपालन कर्ता विशाल संघ निकाला। उस समय में उस यात्रा में १ लाख रु. ૪૦૮ + ૧લ્મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો.