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प.पू. माताजी ने अपने आद्य वक्तव्य में स्वयं घोषित किया है कि इस 'धवला' टीका के आधार से ही स्वयं विशेष जानने की इच्छासे अनेक प्रकरणों को वहां से उद्धृत करके, किन्ही प्राकृत पंक्तियों की संस्कृत छाया करके, कुछ विषयों को संक्षिप्त करके, किन्ही प्रसंगोपात विपयों को सरल करने के लिये अन्य पूर्व परंपरा प्रणीत २२ ग्रंथो के विशेष उद्धरणों को भी संग्रहीत करके यह 'सिद्धान्त चिन्तामणि' टीका लिखी जा रही है। प.पू. माताजी की यह घोषणा उनकी सरलता और स्पष्टवादिता प्रकट करती है।
अपनी मौलिक विचारधारा को आधार बनाकर स्वतंत्र ग्रंथ का लेखन कर लेना तो सरल माना जा सकता है किन्तु पूर्वाचार्यो की सूत्ररूप वाणी लेकर उनके मनोभावों को दृष्टि में रखकर पूर्वापर आगम से अविरुद्ध वचनरूपी मोतियों की माला पिरोते हुए किसी सैद्धान्तिक सूत्र ग्रंथ की टीका लिखना अत्यंत दुरुह कार्य है। टीका की प्रामाणिकता के लिये अत्यन्त आवश्यक है कि उसमें वह कुछ न कहा जाये, जो मूल में न हो और उसे विल्कुल न छोडा जाये, जो मूल में हो। 'सिद्धान्त चिंतामणि' टीका इसमें शत प्रतिशत खरी उतरती है।
अनादिनिधन णमोकार महामंत्र को मूल मंगलाचरण बना कर ग्रंथकर्ता ने उसे ही प्रथम गाथा सूत्र माना है। प.पू. माताजी ने णमोकार मंत्र के अक्षर, पद, मात्रा आदि का सुंदर विवेचन करके यह द्वादशांग का सारभूत है ऐसा भी अन्य ग्रंथो के आधार से सिद्ध किया है। इस मंगलाचरण में नाम, स्थापना आदि निक्षेप भी घटित किये है। यह मंत्र अनादिनिधन है ऐसा भी अन्य ग्रंथ के आधार से प्रकट किया है। 'णि बद्धः' शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकर्ता प.पू. माताजीने कहा है कि 'संग्रहीतः न चग्रंथितः रेवतानमष्कारः स निवद्ध मंगलः' अर्थात् इस मंगलाचरण में णमोकार मंत्र को आ. पुष्पदंतने स्वयं बनाया नहीं है अपितु उसका संग्रह किया है। इसलिये यह अनादिनिधन मंत्र शाश्वत् सिद्ध हो जाता है। हिंदी टीका सहित ४६ पृष्ठो में विस्तारित यह मंगलाचरण प्रकरण विशेषरूप से पटनीय है।
___प्रथम 'जीवस्थान खण्ड में २३७५ सूत्रों की आट अनुयोगद्वार एवं अंत में एक चूलिका अधिकार है जिसके ९ भेद हैं। ६ पुस्तको में विस्तारित प्रथम खण्ड की टीका के पश्चात् सातवी पुस्तक में 'क्षुद्रक बंध' नामक द्वितीय खण्ड में १५९४ सूत्र, आठवी पुस्तक में 'बंध स्वामित्व .....' नामक तृतीय खण्ड में ३२४ सूत्र नवमी से बारहवीं पुस्तक तक 'वेदनाखण्ड' नामक चतुर्थखण्ड के १५२५ सूत्र तथा १३वीं से १६वीं पुस्तक में 'वर्गणा खण्ड' नामक पांचवे खण्ड में १०२३ को मिलाकर कुल ६८४१ सूत्र की टीका कुल सोलह पुस्तको मे ३१०७ पृष्ठो में वी. नि. सं. २५३३ में संपूर्ण की है।
इन ग्रंथो की विषयवस्तु समझने के लिये 'षटखण्डागम का विषय' एवं 'षटखण्डागम - एक अनुशीलन' लेख विशेष पठनीय है। आचार्य चतुष्टय परिचय' में आ. धरसेन, आ. पुष्पदंत और आ. भूतबलि तथा आ. बीरसेन का परिचय,
साहित्य-साम्राज्ञी प. पू. ज्ञानमती माताजी + २६८