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इसके अतिरिक्त ३० चौबीसीके ७२० तीर्थंकरों के नाम-मंत्र भी बनाये हैं। तीस चौबीसी का व्रत करनेवालों के लिये यह स्तोत्र एवं मंत्र बहुत ही उपयोगी रहते हैं। जिन स्तोत्र संग्रहः
यह विशाल स्तोत्र संग्रह प.पू. माताजी की संस्कृत काव्य प्रतिभा का परिचायक है। इसमें उनके द्वारा रचित संस्कृत एवं हिंदी स्तुतियों का समावेश है। इस ग्रंथ के प्रथम, पंचम एवं छठे खण्ड में अन्य आचार्यों एवं विद्वानो द्वारा रचित संस्कृत एवं हिंदी स्तोत्र भी संकलित है। पृष्ट संख्या ३६+५३२ के साथ प्रकाशित यह ग्रंथ भक्ति रस के चाहको के लिये अमूल्य भेंट है।
भक्ति-साहित्य की रचनाओं में 'ल्पद्रुम विधान' (पन्द्रहवाँ संस्करण पृ. सं. ४८+४६८), 'सर्वतो भद्र विधान' (नवम संस्करण पृ. सं. ३२+८३२), 'तीन लोक विधान (अष्टम संस्करण पृ. सं. ४०+५२०) त्रैलोक्य विधान' (लघु तीनलोक विधान सप्तम संस्करण पृ. सं. ३२+३०८), 'श्री सिद्ध चक्रविधान' (सप्तम संस्करण पृ. सं. ६४+३९२), 'विश्वशांति महावीर विधान' (तृतीय संस्करण पृ. सं. ४०+३०४), 'जम्बूद्वीप मण्डल विधान' (पप्टम संस्करण पृ. सं. ४२+२७६) आदि कई विधान भक्तिरस में डूबने के लिये उपलब्ध कराये हैं।
उपर्युक्त वैविध्यपूर्ण काव्य कृतियों के आधार पर यदि प.पू. माताजी को ‘मह कवियित्री' कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शब्दों का चयन और संयोजन उनके अप्रतिम भाषा प्रभुत्व एवं काव्यशक्ति का परिचायक है। समस्त साहित्य कृतियों की भाषा अत्यंत सरल, सौष्ठवपूर्ण और माधुर्य से भरपूर है। उसमें प्रायः लंबे समासों तथा क्लिष्ट पदावली का अभाव है। उनकी वाक्य योजना सरल तथा प्रभावोत्पादक है। अभिव्यक्ति में कहीं अस्वाभाविकता के दर्शन नहीं होते हैं। यही कारण है कि उनके श्लोकों एवं टीका ग्रंथा को पढते ही उनका अभिप्राय अथवा तात्पर्य शीघ्र ज्ञात हो जाता है।
प.पू. माताजी का चिंतन एवं लेखन पूर्णतया जैनागम से संबंध रखता है, पूर्वापर विरोधरहित होता यह उनकी महान विशेपता है। उनके उत्कृष्ट त्याग और तपस्या, तथा निर्दोप संयम-पालन ने उनके भावपूर्ण गद्य-पद्य रूप हिंदी और संस्कृत साहित्य को जीवन्तता प्रदान की है।
प.पू. माताजी की लगभग सभी संस्कृत और हिंदी की साहित्यिक कृतियों का प्रारंभ सिद्ध या सिद्धि शब्द से हुआ है। शताधिक स्तोत्रों की रचयित्री प.पू. माताजी का अपना मत है कि सिद्ध या सिद्धि शब्द से रचना का प्रारंभ सिद्धि प्रदायक एवं निर्विन कार्य-पूर्णता का परिचायक होता है। टीका एवं अनुवाद ग्रंथ
अष्टसहस्रीः जैन न्याय दर्शन का अतिप्राचीन एवं सर्वोच्च ग्रंथ 'अष्ट सहस्त्री' की हिंदी टीका का श्रमसाध्य कार्य केवल १८ महीनों में वी. सं. २४९६ में ही पूर्ण ૨૬૬ + ૧લ્મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો