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हिंदु, मुसलमान, सिख आदि एक होकर रहें। हमें बलिदान देकर भी अपनी
एकता को कायम रखना होगा। * 'जन्म के समय हिंदु बालक चोटी लिए जन्म नहीं लेता, मुसलमान बालक सुन्नत के साथ पैदा नहीं होता, और सिख शिशु के सिर पर बाल नहीं होते। ये सब चिह्न तो संस्कारजन्य हैं।' * 17-10-1947 (दैनिक उर्दू पत्र ‘वीरभारत' अमृतसर) : भारत के तमाम जैनों से अपील है कि जो हिंदु सिख जैन भाई बहिन पाकिस्तान से दुखी होकर आए हैं, वे सब तुम्हारी सहायता के योग्य है। उनको अपना भाई-बहिन समझो। उनकी सेवा करना हमारा धर्म है। जैनों से ही नहीं, में भारत के हर नागरिक से अपील करता हूँ कि बंगाल के दुष्काल पीडित भाई-बहिनों के लिए शुरू किये जा रहे - 'बंगाल-राहत फण्ड' में दिल खोलकर धन देवें।
बडौदा, पालनपुर, माँगरोल, जैसलमेर, बीकानेर, उदयपुर, नाभा, मालेरकोटला, लिंबडी, पालीताना, सलाना, जम्मु आदि रियास्तों के नवाब, राणा व राजाओं को उपदेश देकर सदाचार और लोक मंगल की ओर प्रेरित किया। सिरोही के महाराज को निजी पत्र लिखकर विख्यात हिंदु तीर्थ 'अंबाजी' पर होने वाली पशुबलि को बंद कराया।
विदेशी ब्रिटिश शासन के प्रति भी विजयवल्लभने कहा था कि हमने मूर्खता और नासमझी से विदेशी शासकों को अपना स्थान (राष्ट्र) सौंप दिया है।
... मूरख हम भारी नादान, किया चोरों को आह्वान
___दिया उन को निज थान, जो हमें गुलाम बनाने वाले' देशवासियों को गुलामी की जजीरें तोडने के लिए वीर बनने को कहते हैं - ... बने शूरवीर विनों के, अडे जो सामने रहते,
_ दिखाते हैं पराक्रम को, उन्हें जगवीर गाता है। युवा पीढी को कहा... ___... वर्तमान अवस्था देश की दिल में विचारो ... जो चाहो शुभ भाव से, निज आतम कल्याण
तीन सुधारो प्रेम से, खान, पान, पहरान ३१-५-१९४० को गुजराँवाला में भव्यतम नगर प्रवेश के अवसर पर 'गुजराँवाला म्युनिसिपल कार्पोरेशन' की ओर से एक मानपत्र, उनकी सेवा में दिया गया, जिसके शुरू की पंक्ति थी... 'पेशवाये कौम, रहनुमाये मिल्लत'। इसके उत्तर में अत्यंत शांत स्वभाव से ही विजयवल्लभसूरि ने कहा...
'मुझे ये मानपत्र किस लिये दिया गया है ? मैं न तो कोई बड़ा व्यापारी हूँ,
आचार्यश्री विजयवल्लभसूरि व्यक्तित्व-कवि-काव्य + ६७