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________________ श्रेष्ठिगोत्र और समरसिंह | ३५ के हित आए हुए इसी वंश में सम्मिलित हो गये | आज की भांति का संकीर्ण हृदय का व्यवहार उस समय विद्यमान नहीं था । जिस साधर्मी के साथ आज भोजन व्यवहार है उस के साथ बेटी व्यवहार अब नहीं भी होता है, पर ऐसी संकुचित वृत्ति उस समय नहीं थी । वरन् उस समय तो नये साधर्मी बन्धु के साथ विशेष प्रेम का व्यवहार प्रचलित था । निर्धन भाई को थोड़ी थोड़ी सहायता सब दे कर अपने बराबरी का धनी बना देते थे यही कारण था कि उस वंश की संख्या जो लाखों पर ही थी थोड़े ही समय में क्रोडों तक पहुंच गई और भारत के कोने कोने में यह जाति फैल गई । वि० सं. १३६३ में - उपकेश गच्छाचार्य श्रीकक्क सूरिजी विरचित ' उपकेश गच्छ चरित्र' नामक ऐतिहासिक ग्रंथ के पढ़ने से मालूम हुआ है कि आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के ३०३ वर्ष पश्चात् अर्थात् वीरात् ३७३ के वर्ष में उपकेशपुर में उपद्रव हुआ था जिस की शान्ति श्री पार्श्वनाथ के १३ वें पट्टधर आचार्य श्रीकक्कसूरिने अपनी संरक्षता में करवाई थी । उस समय उपकेश नगर में उपकेश वंशीय मुख्य १८ गोत्र प्रसिद्ध थे और वे सर्व प्रकार से उन्नति प्राप्त किये हुए थे । उपर्युक्त ग्रंथरत्न में उन गोत्रों के नामों का भी उल्लेख है । जो इस प्रकार हैं १ तातेड, २ बाफना, ३ कर्णाट, ४ बलहा, ५ मोरख, ६ कुलहट, ७ विरहट, ८ श्रीश्रीमाल, ह श्रेष्ठ गोत्र, १० संचेती, ११ आदित्य नाग, १२ भूरिगोत्र, १३ भाद्रगोत्र, १४ चिंचट, १५ कुम्भट, १६
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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