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________________ समरसिंह । भरसक प्रयत्न करने में किसी भी प्रकार की कमी उन्होंने नहीं रखी। यह हमला वि. संवत् १३६९ में हुआ। जब इस की खबर चारों ओर फैली तो जैनियों को हार्दिक परिताप हुआ; पर वे करते क्या १ विवश थे । वीर मन मसोस कर बैठ रहे । जैन संसार में हाहाकार मच गया। यह खबर विजली की तरह सारे प्रान्तों में फैल गई । यही बात जब पाटण स्थित श्री उपकेशगच्छाचार्य गुरु चक्रवर्ती सिद्धसूरि ने सुनी तो आप ने प्रस्तुत समस्या पर विचार किया और यही सोचा कि तीर्थाधिराज का उद्धार शीघ्रातिशीघ्र होना चाहिये। आपने विचार किया तो इस कार्य को करने के लिये दो व्यक्ति उपयुक्त दृष्टिगोचर हुए। ये दोनों व्यक्ति पाटण नगर के धर्मनिष्ठ, धनाढ्य, राज्यमान्य, उपकेश वंशीय श्रेष्टिगोत्रज (वैद्यमुहत्ता) भावक शिरोमणि देशलशाह और उन के पुत्ररत्न समरसिंह थे । ये दोनों व्यक्ति ओजस्वी प्रभाविक और कार्यकुशल थे । आचार्यश्रीने उचित समझ कर श्रीसंघकी सम्मतिपूर्वक पुनीत तीर्थोद्धार करने का भार उपर्युक्त दोनों महापुरुषों को सौंपा। परम सौभाग्य की बात है कि जैनाचार्य उस समय की घटनाभों को लेखबद्ध कर गये जिस से अब हमें सरलता से उस समय की उन्नति और अवनति की सर्व बातें मालूम हो सकती हैं। इस के लिये हम उन के विशेष कृतज्ञ हैं। शत्रुजयगिरि के इस पंद्रहवें उद्धार के करानेवाले समरसिंह के जीवनचरित को जानने के लिये अनेक साधन उपलब्ध
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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