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________________ शत्रुजय तीर्थ । अपरंपार है। यही कारण है कि जैन समाज चिरकाल से इस तीर्थ पर दृढ़ श्रद्धा और अपूर्वभक्ति स्थिर रखे हुए है । केवल श्वेताम्बर ही नहीं अपितु दिगम्बरे भी इस परम पुनीत तीर्थक्षेत्र की पूज्यदृष्टि से सेवा, भक्ति और उपासना करते हैं तथा इस के हित के लिये तन मन धन और सर्वस्व तक अर्पण कर निज प्रात्महित साधन में तत्पर रहते हैं। शबुंजय तीर्थ की प्राचीनता यो तो इस पवित्र तीर्थ को शाश्वता माना गया है और वर्तमान अंगोपांग सूत्रों में भी इसकी प्राचीनता के कई उल्लेख मिल सकते हैं। श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के पाँचवे अध्ययन में इस तीर्थ को 'पुंडरिक गिरि ' के नाम से पुकारा गया है। यह नाम आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव के प्रथम शिष्य 'पुंडरिक गणधर' के नामकी स्मृति का द्योतक है। इस उल्लेख से यह विदित होता है कि भगवान श्री ऋषभदेव के शासन काल में भी यह तीर्थ परम पूजनीय था। यह तीर्थ उस समय से भी पहले का है कारण कि भरतचक्रवर्तीने स्वयं इसका उद्धार कराया था । बादमें बड़े २ देवेन्द्रों तथा नरेद्रोंने स्वात्मोद्धार के हेतु इस तीर्थ के उद्धार करवाये और शान्तिनाथ १ शत्रुजय महात्म्य और शत्रुजय कल्पादि ग्रन्थों को देखिये । २ निर्वाण काण्ड नामक ग्रन्थ देखिये। ३ पुडरीए पंच कोडीओ से तुज सिहरे समागो। अह कम्म स्य मुक्का तेण हुतिभा पुडरीए( आ० मि.)
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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