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समरसिंह.
चतुर्थभाषा संघपतिदेसलु हरषियउ अति धरमि सचेतो । पणमह सिधसुरिपयकमलो समरागरसहितो। वीनती अम्हतगी प्रभो अवधारउ एक । तुम्ह पसाइ सफल किया अम्हि मनोरहनेक ॥ १ ॥ सेत्तुजतीरथ ऊधरिवा ऊपन्नउ भावो । एकु तपोधनु आपणउ तुम्हि दियउ सहाउ । मदनु पंडितु आइसु लहवि आरासणि पहुचइ । सुगुरवयणु मनमाहि धरिउ गाढउ अति रूचइ ॥२॥ राणेरा तहि राजु करइ महिपालदेउ राणउ । जीवदया जगि जाणिजए जो वीरु सपराणउ । पातउ नामिहि मंत्रीवरो तसुतणइ सुरजे । चंद्रकन्हइ चकोरु जिसउ सारइ बहुकजे ॥३॥ राणउ रहियउ आपुणपई पाणिहि उपकंठे। टंकिय वाहइ सूत्रहार भांजइ घणगंठे । फलही आणिय समरवीरि ए अतिबहुजयणा । समुद्र विरोलिउ वासुगिहि जिम लाधा रयणा ॥ ४ ॥ कुमारसि उछवु हूअउ त्रिसींगमइनइरे। फलही देपिउ धामियह रंगु माइ न सइरे । अभयदानि आगलउ करुणारसचित्तो। गोत्ति मेन्हावइ पइरालुबह आपइ बहुवित्तो ॥ ५॥