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________________ समरसिं २१६ राई की युक्ति को जन्मभर नहीं भूला । आपश्री के प्रसाद ही से उसे पुनः शासन करने का योग मिला था। बादशाह से इच्छित फरमान प्राप्त कर हमारे चरितनायकने जिनेश्वर की जन्मभूमि मथुरा और हस्तिनापुर में संघपति हो कर संघ तथा आचार्य श्री के साथ तीर्थयात्रा की थी। ___ इस के पश्चात् चरितनायकजी तिलंग देश के अधिपति ग्यासुद्दीन के पुत्र उल्लखान के पास भी रहे । उल्लखान भी आपश्री को भाई के सदृश समझता था तथा तदनुरूप ही व्यवहार करता था। उल्लखानने आपश्री की कार्यकुशलता तथा प्रखर बुद्धि को देख कर तिलंग देश के सूबेदार के स्थानपर आपश्री को ही नियत कर दिया। इस पद को पाकर भी समरसिंहने अपने स्वाभाविक उदार गुणों का ही परिचय दिया । तुर्कोने ११,००,००० ग्यारह लाख मनुष्यों को अपने यहाँ कैद कर लिया था। समरसिंहने उन्हें छोड़ दिया । इस प्रकार अनेक राजा, राणा और व्यवहारी भी हमारे चरितनायक की सहायता पाकर निर्भय हुए थे। चरितनायकजीने सर्व प्रान्तों से अनेक श्रावकों को सकुटुम्ब १ इन प्राचार्यश्रीने शत्रुजय, गिरनार और फलौधी आदि तीर्थों को मुसलमानी राज्यकाल में सुरक्षित रखने का आदर्श प्रयत्न किया था। २ वि० सं० १६३८ में विरचित कवि जयसुन्दरके ग्रंथ श्रीशत्रुजय तीर्थोद्धारक रास में इस प्रकार उल्लेख है कि-" नवलाख बंधी (दी) बंध काप्या, नवलाख हेम टका तस प्राप्या; तो देसलहरीये अन्न चाख्यु, समरशाहे नाम राख्यु " ढाल १० वीं कड़ी १०१ वीं।
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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