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________________ १४८ समरसिंह करते हुए अलपखान को असीम सहायता पहुंचा रहे थे । अतः राज्य भर में ही नहीं वरन् अन्य प्रान्तों में भी समरसिंह की कीर्त्तिकौमुदी प्रस्तारित हो रही थी । बि. सं. १३६९ के दुखमय वर्तमान का उल्लेख करते हुए लेखनी सहसा रुक जाती है । हाथ थर थर कांपने लगते हैं । नेत्रों से आंसुओं की अविरल धारा निकलती है । हृदय टूक टूक होता है उस समय अलाउद्दीन खिलजी की सेनाने लग्गा लगा कर हमारे परम पुनीत तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय गिरि पर धाबा बोल दिया । इस आक्रमण से अतुल क्षति हुई । अनेकानेक भव्य मन्दिर और मूर्त्तियां ध्वंस कर दीगई, उनका अत्याचार यहां तक हुआ कि मूलनायक श्री युगादीश्वरजी की मूर्तीपर भी हाथ मारा गया । यह मंजुल मूर्त्ति खण्डित कर दी गई । यह मूर्त्ति वि. सं. १०८ में जावड़शाहने आचार्यश्री वज्रस्वामी द्वारा प्रतिष्ठित कराई थी । यह दुखद समाचार बिजली की तरह बात ही बात में चहुँ ओर फैल गये । जैन समाज के प्रत्येक व्यक्ति के हृदय पर 1 गहरा आघात पहुँचा । शोकातुर समाज दुःख सागर में निमग्न हो गई । विषाद का पारावार न रहा । जैन वायु मंडल में यह समाचार काले बादलों की तरह छा गये जिस प्रकार वि. सं. १०८० में महमूदग़जनीने सोमनाथ के मन्दिर को ध्वंस कर चहुं ओर हाहाकार मचा दी थी वही हाल इस समय इस घटना । हुआ ।
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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