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समरसिंह जहाँ समुद्र नामक धर्म-मर्मज्ञ श्रावक था जिसने मन्दिर भी वनवाया था । वह गच्छ की प्रभावना करने में भी तत्पर था । वहाँ के राजा अर्जुन का कृपापात्र और १२,००० भश्वों का स्वामी कुमारसिंह था वह भी प्राचार्यश्री के सदुपदेश को सुन कर आवक हुआ। वह पराक्रमी वीर योद्धा था उसने गोहाद के राजा को पराजित कर उस का राज्य छीन लिया था। ' रावल' की उपाधि से विभूषित कुमारसिंहने स्तम्भन तीर्थ पर वीर जिनालय बनवा कर सूरिजी से उसकी प्रतिष्ठा करवाई। घृतघठीक नामक नगरी में भाचार्यश्री के उपदेश से विजा और रूपलने भी मान्दर बनवाए । आपके उपदेश के प्रभाव से जैन धर्म के प्रति कई राजपूतों के उच्च भाव हुवे । . कालान्तर में प्राचार्य ककसूरि तथा उनके पट्ट पर देवगुप्त सूरि महाप्रभाविक हुए। आपकी जीवन गाथा चरित्रकारोंने बहुत उत्तम ढंग से लिखी है। इनके पट्ट पर प्रभाकर सहश भाचार्य श्री सिद्धसूरि हुए जिनके सदुपदेश से श्रेष्टि-गोत्र-मुकुटमणि देशलशाहने सात वार तीर्थयात्रा कर चौदह क्रोड़ रुपये व्यय किये । भाचार्यश्री, शत्रुजय तीर्थ के पंद्रहवें उद्धारक साधु समरसिंह के धर्मगुरु थे। आप ही के उपदेश से हमारे चरित्रनायकने इस पवित्र कार्य को कर अक्षय पूण्योपार्जन किया । यह वही धीर, वीर और गंभीर नर-सिंह समरसिंह है जिसका जीवनचरित पाठकों को बताने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। चरितनायक