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________________ १०८ उमर सिंह पढ़ कर उस के दो टुकड़े कर के कह दिया कि एक टुकड़ा तो राजा कुमारपाल को और दूसरा हेमचन्द्र को दे देना और साथ में यह भी कह देना कि शास्त्र के प्रतिकूल बात को मानने के लिये कोई भी आचार्य तैयार नहीं है । यह संदेश लेकर आदमी तो चला गया । पीछे सब आचायोंने मिल कर विचार किया कि समुद्र में रहते हुए मगर से बैर करना उचित नहीं क्योंकि इस समय पाटण का वातावरण हेमचन्द्राचार्य के पक्ष में हैं । महाराजा कुमारपाल यद्यपि सब गच्छों के आचायों का मान करता है तथापि वह आचार्य हेमचन्द्र का ही विशेष भक्त है । परन्तु यह कब सम्भव हो सकता है कि अपनी मान्यता के प्रतिकूल योगशास्त्र को कैसे मान सकते हैं । जब ऐसा विचार होने लगा तो आचार्यश्री ने कहा ! भो आचायों, आप सब क्यों असमंजस में पढ़े हो | आप लोग त्यागी हो । एक ही प्रान्त में या नगर में रहना उचित नहीं, मेरे साथ सिन्ध प्रान्त चलिये, जहाँ एक उपकेशगच्छ आश्रित ५०० मन्दिर और लाखों श्रद्धालु सुश्रावक हैं जो आप की भक्तिपूर्वक सेवा करेंगे । साथ में आप लोगों को नये नये १ तानू चेथ कक्कसूरि सिन्धु देशे मया सह । आगच्छ तय तस्तत्र किं कर्ता सौ नरेश्वरः ॥ ४४४ ॥ यस्य देव गृहस्ये छा=देकावापियस्पतां । पूरयेतत्रयदेवगृह पंचशती ममः ॥ ४४५ ॥ श्रावका अथ संख्याताश्चलतातोज्जटित्यपि । संक्लेश कारकं स्थानं दूरतः परिवर्जयेत् ॥ ४४६ ॥ ( ना० नं० उ० )
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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