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________________ उपकेशगच्छ-परिचय । में पधारे । राजा और प्रजाने आप का धूमधाम पूर्वक स्वागत किया । जिनमन्दिरों में अठाई महोत्सवपूर्वक भक्ति होने लगी। प्राचार्य श्री के साथ शान्ति नामक शिष्य था। सूरिजीने उसे सम्बोधन करते हुए कहा-" कहो शांति, तुम भी किसीको प्रतिबोध देकर मंदिर बनवाओगे।" शान्तिने इसे ताना समझ कर उत्तर दिया-" राजा को प्रतिबोध तो मैं दूंगा परन्तु राजा के बनाये हुए मन्दिरकी प्रतिष्टा कराने लिये आप पधारना ।" ऐसा कह शान्ति मुनि सूरिजीकी आज्ञा से कुछ मुनियों को साथ लेकर विहार करते हुए थोड़े ही दिनों बाद त्रिभुवननगर में पहुँचे । वहाँ जाकर अपनी प्रतिज्ञानुसार राजा को प्रतिबोध देकर मन्दिर बन. वाया और साथ ही प्रतिष्टा के लिये सूरिजी को निमंत्रण भी भिजवाया। यह समाचार सुन सूरिजी बहुत आह्लादित हुए। क्यों न हों! कमाऊ पूत सबको प्रिय लगता ही है । सूरिजीने त्रिभुवनगढ़ पधारके पूर्वोक्त मन्दिरकी प्रतिष्टा करवा राजा को अनेक व्यक्तियों सहित जैन धर्मसे दीक्षित किया । धन्य ऐसे गुरु शिष्यों के कारनामों को ! इससे प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि जैन-धर्मके प्रचार की उनके हृदयपटल पर कितने गहरे स्नेह के भाव खचित थे ! इसी उपकेश गच्छ में दो पूर्वधारी देवगुप्त सूरि नामक एक महान प्रभाविक आचार्य हुए । आपने स्व तथा परगच्छके अनेक जिज्ञासुमों को शास्त्रों का ज्ञान देकर शासनप्रेमी बनाया । १ प्रतिज्ञा येति सो गच्छत् दुप्रै त्रिभुवनादिके गिरौ भूपं प्रतिबोध्या कारय जिन मन्दिरं । उ० च० । ६६ ।
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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