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७६ जैन कथा कोष
धन की चोट मनुष्य पर बड़ी कड़ी होती है। दो-तीन वर्ष में ही श्रेष्ठी धनदत्त और सेठानी वसुमती चल बसे । उनका व्यापार उजड़ गया। फिर भी जयश्री एक हजार मुद्राएं नित्य भेजती रही। एक दिन जब मुद्राएं समाप्त हो गईं तो उसने अपने आभूषण ही दे दिये। आभूषण देखते ही अनुभवी सुलोचना समझ गई कि अब कृतपुण्य के घर में धन नहीं रहा है। अतः उसने उसे निचुड़े आम की तरह अपने घर से निकाल दिया ।
कृतपुण्य अपने घर पहुँचा तो वहाँ की दशा देखकर बहुत दुःखी हुआ । माता-पिता के मरने की बात जानकर उसके पश्चाताप की सीमा न रही। पत्नी जयश्री ने उसका हार्दिक प्रेम-भरा स्वागत किया, उससे तो वह विह्वल ही हो गया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसे वेश्या नागिन के समान और पत्नी देवी के समान लगने लगी। काफी देर तक दोनों पति-पत्नी सुख - दुःख की बातें करते रहे और फिर पत्नी तो सो गई लेकिन पति कृतपुण्य ने धनोपार्जन का निश्चय कर लिया ।
निर्णय तो कर लिया कृतपुण्य ने, लेकिन समस्या थी पूंजी की। बिना पूंजी के व्यापार कैसे होता ? इस समस्या को उसकी पत्नी जयश्री ने हल किया। उसने अपने आभूषण दे दिये। एक सार्थ राजगृह के गुणशीलक उद्यान से बसन्तपुर जा रहा था । कृतपुण्य ने उसी के साथ जाने का निश्चय कर लिया; कहीं सार्थ प्रातः जल्दी ही प्रस्थान न कर जाये, इसलिए वह रात को ही आभूषणों की पोटली लेकर उद्यान में बने चैत्यालय में जा सोया । गृह में ही एक चम्पा नाम की विधवा सेठानी रहती थी। उसके पास दुर्ग जैसा भवन था, अकूत धन था और था एक बेटा । पुत्र का विवाह उसने चार कन्याओं के साथ किया। अभी कोई भी गर्भिणी नहीं हुई थी कि चम्पा का इकलौता पुत्र सार्थ लेकर व्यापार के लिए परदेस गया, किन्तु रास्ते में डाकुओं ने सार्थ तो लूटा ही, उसके इकलौते पुत्र को भी जान से मार डाला। चम्पा सेठानी को यह सूचना जन सार्थ से जान बचाकर भागे हुए एक नौकर (भृत्य) से मिली तो वह बड़ी चिन्तित हुई— पुत्र के लिए नहीं, धन के लिए; क्योंकि उस समय की प्रथा के अनुसार सन्तानहीन का धन राजकोष में जमा कर लिया जाता था । चम्पा सेठानी ने नौकर को यह बात किसी से न कहने का आदेश दिया और उसे मुँह बन्द रखने के लिए काफी धन भी दे दिया । भृत्य चला गया ।