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५६ जैन कथा कोष ऊर्ध्वमुखी हो गई, बाँस पर ही उसका शरीर स्थिर हो गया, कषायों का मूलोच्छेद हुआ और उसे वहीं कैवल्य की प्राप्ति हो गई।
वीतराग दशा में वह बाँस से उतरा और उसी रंगमंच से उसने जन-कल्याण का उपदेश दिया। उस उपदेश से नट-कन्या तथा राजा के हृदय में भी वैराग्यभाव जागृत हो गया। उन्हें भी कैवल्य की प्राप्ति हुई।
इस प्रकार नट-विद्या का रंगमंच आध्यात्मिक रंगमंच बन गया और तीनों ही संसार-बंधन से मुक्त हो गये।
—(क) आख्यानक मणिकोश
-(ख) उपदेशमाला ३६. इक्षुकार-कमलावती राजा 'इक्षुकार' इक्षुकारनगर का स्वामी था। उसकी रानी का नाम 'कमलावती' था। महाराज के पुरोहित का नाम था 'भृगु' और उसकी पत्नी का नाम था 'यशा'। पुरोहित के दो पुत्र भी थे। पूर्वजन्म में ये छहों प्राणी प्रथम स्वर्ग के 'नलिनीगुल्म' विमान में थे। वहाँ से च्यवकर ये सभी यहाँ पैदा हुए थे।
महाराज इक्षुकार अपने पुरोहित भृगु को समय-समय पर विविध प्रकार का धन दान दिया करते थे। पुरोहित सर्वविधि सम्पन्न था। अपने दोनों पुत्रों के हृदय में वैराग्य जग जाने से माता-पिता भी संयमी बनने को तैयार हुए। पीछे वंश में कोई भी न होने से पुरोहित के घर का सारा धन गाड़ियों के द्वारा राजभण्डार में जाने लगा। राजमहल के झरोखे में बैठी महारानी को यह सब देखकर बहुत आश्चर्य हुआ और महाराज से कहा-'पतिदेव ! यह क्या? क्या कभी दिया हुआ दान भी वापस लिया जा सकता है? इस धन को लेना तो मानो वमन किये भोजन को पुनः खाना है। हृदयसम्राट् ! पुरोहित और उसके पुत्रों ने दुःख, शोक-चिन्ता और अनर्थ का मूल समझकर जिस धन से अपना मुँह मोड़ लिया, आप उसी से प्रेम जोड़ रहे हैं। यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है? पुरोहित
और उसका सारा परिवार नश्वर था तो हम क्या अनश्वर हैं? हमें क्या अमर रहना है?'
रानी के इस कथन से राजा प्रतिबुद्ध हुआ। राजा और रानी भी पुरोहित के साथ ही संयमी बन गये। मुनि-जीवन की उत्कृष्ट आराधना करके इक्षुकार राजा मोक्ष गया।
-उत्तराध्ययन, १४