SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ जैन कथा कोष परिवार ने यह बात स्वीकार कर ली। फिर भी मुनि अषाढ़भूति ने स्पष्ट दृढ़ स्वर में चेतावनी दी—'जिस दिन भी मैंने इस घर के किसी भी सदस्य को माँस-मदिरा का सेवन करते देख लिया, उसी दिन छोड़कर चल दूँगा।' नट के सभी सदस्यों ने माँस-मदिरा का सेवन न करने का विश्वास दिलाया। मुनि अषाढ़भूति आश्वस्त हो गये। वहीं रहने लगे। नट महर्द्धिक ने अपनी दोनों कन्याओं—भुवनसुन्दरी और जयसुन्दरी का विवाह उनके साथ कर दिया। अब मुनि अषाढ़भूति गृहस्थ अषाढ़भूति थे। गृहस्थ बनकर वे इन्द्रिय-सुखों को भोगने लगे। ____ अब अषाढ़भूति गृहस्थ थे। गृहस्थ के योग्य धन का उपार्जन भी वे करते । जब राजा के पास कोई दूसरी नट-मण्डली आती और प्रदर्शन करती तो वे अपनी लब्धियों द्वारा उससे उत्तम कला का प्रदर्शन करते और विजयी बनकर प्रभूत पुरस्कार पाते । सचमुच वे महर्द्धिक नट के लिए सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी बन गये थे। उन्होंने उसका घर धन से भर दिया था। अब वे अषाढ़ नट के नाम से दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गये थे। इस तरह बारह वर्ष गुजर गये। कलाकार तो एक से एक बढ़कर हैं। एक दूसरा नट भी अपनी नट कला में बहुत निपुण था। उसने चौरासी नटों पर विजय प्राप्त की थी। इसके प्रतीकस्वरूप वह ८४ पुतलियों के स्वर्ण-घुघरू पैरों में पहनता था। दूसरे देश के नट ने अषाढ़ नट को चुनौती दी और अषाढ़ नट ने वह चुनौती स्वीकार कर ली। राजा के सामने दोनों का मुकाबला होना था। अषाढ़ नट उस परदेशी नट को जीतने के लिए परदेश चला गया। पीछे से दोनों नट-कन्याओंभुवनसुन्दरी और जयसुन्दरी ने सोचा-माँस-मदिरा का सेवन किये बिना बारह वर्ष निकल गये। अब तो वह (अषाढ़भूति) है नहीं, छ: माह तक भी आने की कोई संभावना नहीं, क्योंकि इतना समय तो उसे जीतने में लग ही जायेगा, इसलिए इस समय में माँस-मदिरा का खूब सेवन कर लें। उसे क्या मालूम पड़ेगा? इस प्रकार विचार करके वे स्वच्छन्दतापूर्वक माँस-मदिरा का सेवन करने लगीं। एक दिन अचानक ही अर्धरात्रि के समय अषाढ़ नट लौट आया। वह उस परदेशी नट को पराजित करके आया था, इसलिए खूब धन भी मिला और वह उमंग में भरा भी था। लेकिन घर आकर जो देखा कि दोनों स्त्रियाँ मदिरा के नशे में धुत्त पड़ी हैं, इधर-उधर माँस के टुकड़े पड़े हैं तो उसका हर्ष दुःख में बदल
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy