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________________ जैन कथा कोष ३५३ लगा। सास-बहू, ननद-भाभी के सम्बन्ध वैसे कितने मधुर होते हैं, यह भी एक प्रश्नचिह्न ही रहता है। वह धार्मिक भिन्नता के कारण यहाँ उत्तरोत्तर कटु से कटुतर होता गया। सुभद्रा अपने आपको संवारती हुई अपनी साधना करती रहती और वे दोनों इसके छलछिद्र तकती रहतीं। ___ एक दिन 'सुभद्रा' के यहाँ भिक्षा लेने के लिए एक मुनि आए । सती ने उन्हें भक्तिपूर्वक आहार-पानी दिया। जब ऊपर की ओर देखा तो लगा मुनि की आँख में एक तृण पड़ा है। आँख पूरी खुल भी नहीं रही थी। पानी बह रहा था। जिनकल्पी मुनि किसी भी स्थिति में अपने शरीर की सार-सम्भाल नहीं करते । अतः वह आँख में पड़ा तृण निकालें भी कैसे? 'सुभद्रा' को मुनिदेव का कष्ट देखते ही करुणा आ गयी। तत्क्षण ही उसने अपनी जीभ से मुनि की आँख में पड़ा हुआ तृण निकाल दिया। संयोगवश, ऐसा करने से 'सुभद्रा' के ललाट पर लगी हुई बिन्दी मुनि के भाल पर लग गई। ___ 'सुभद्रा' की ननद से यह सब देख लिया। फिर क्या था? सुभद्रा को बदनाम करने का उसे पूरा मसाला मिल गया। भाभी को बुरा-भला कहा। इतने से ही वह सन्तुष्ट नहीं हुई। इस बात को उसने सारे नगर में फैला दिया कि 'सुभद्रा' ने आज मुनि से ऐसे अकृत्य किया। इसका प्रमाण है कि मुनि के ललाट पर लगी हुई सुभद्रा के ललाट वाली बिन्दी। ___ यह कलंक अकेली सुभद्रा पर ही नहीं, वरन् जैनधर्म और जिनकल्पी महामुनि पर भी था। धर्म पर कलंक लगने से 'सुभद्रा' को असह्य दुःख होना ही था, परन्तु उसकी सुनने वाला कौन था? कुछ क्षण वह अवश्य चिन्तित रही, आंसू भी बहाये। पर अन्त में उसने अपने आंसूओं को पोंछकर आत्मबल जगाया। यह संकल्प करके ध्यान में बैठ गई कि जब तक मेरा कलंक नहीं उतरेगा, तब तक मैं अन्न जल-ग्रहण नहीं करूंगी। दुःशीला बनकर जीना भी क्या जीना है। ___'सुभद्रा' के तीन दिन निकल गये। चौथे दिन सब लोग सोकर उठे तो देखा कि नगर के चारों दरवाजे बन्द थे। द्वार-रक्षकों ने खोलने के बहुत प्रयत्न किये परन्तु परिणाम कुछ भी नहीं निकला। द्वार नहीं खुले। राजा को समाचार मिला। राजा ने मदोन्मत्त हाथियों के द्वारा द्वार तुड़वाने का आदेश भी दे दिया। परन्तु वे सारे के सारे प्रयत्न बेकार गये। हुआ कुछ भी नहीं। मदोन्मत्त हाथी भी द्वार न तोड़ सके। आवागमन बन्द होने से सारे लोग शोकाकुल हो उठे।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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