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________________ जैन कथा कोष ३४३ का वियोग याद हो आया। सुग्रीव 'सीता' की खबर लगाने के लिए वचनबद्ध हुआ। राम-लक्ष्मण को साथ लेकर 'किष्किन्धा' आने के लिए इस शर्त पर तैयार हुए कि जो सच्चा होगा, उसका पक्ष वह लेंगे । राम किष्किन्धा आये । छली 'सुग्रीव' निश्चिन्त था । सोच रहा था— होना-जाना क्या है? मेरी विद्या सिद्ध की हुई है । राम ने दोनों को सामने खड़ा किया। कुछ प्रारम्भिक प्रयोग के बाद राम ने अपना 'वज्रावर्त' धनुष उठाया और धनुष्टंकार की । उसकी भयंकर टंकार से ही 'साहसगति' की विद्या भाग गई। साहसगति अपने मूल रूप में आ गया। साहसगति को जब सामने खड़ा देखा, तब सभी को आश्चर्य हुआ । राम के द्वारा यों दंभ का दमन हुआ । सत्य सबके सामने निखर आया । राम ने उसी धनुष से एक बाण छोड़कर 'साहसगति' को जमीन का पूत बना दिया । - त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ७ २००. सीता सती सीता 'विदेह' देश के महाराज 'जनक' की पुत्री थी । 'सीता' की माता का नाम 'पृथ्वी' तथा भाई का नाम 'भामंडल' था । युवावस्था में सीता के स्वयंवर मंडप की रचना की गई। उसमें दशरथनंदन 'श्रीराम' ने धनुष चढ़ाया। सीता ने वरमाला राम के गले में पहना दी । 'सीता' और 'राम' की युगल जोड़ी को सभी ने सराहा । अपने पिता महाराज दशरथ के वचन निर्वाह हेतु जब राम वनवास जाने लगे तब 'सीता' भी साथ गई । वनवास के अनगिनत और अकल्पित कष्टों को उस कोमल काया से सहन करके सीता ने संसार को यह दिखा दिया कि 'जहाँ पति, वहाँ सती' । सूर्पणखा के बहकाने से दण्डकारण्य अटवी में लंका का स्वामी राजा 'रावण' आया। सीता का हरण करके अपने यहाँ ले गया । राक्षसराज के चंगुल में फंसकर भी सीता अपने सतीत्व पर दृढ़ रही । समय-असमय 'रावण' की ओर से मिलने वाले सभी तरह के लुभावने प्रलोभनों को ठुकराती रही । 'रत्नजटी' विद्याधर के द्वारा पता पाकर 'राम-लक्ष्मण' ने 'सुग्रीव', 'हनुमान', 'नल', 'नील' आदि अनेक राजाओं को साथ लेकर 'लंका' पर
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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