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________________ ३२८ जैन कथा कोष दूसरे दिन सूर्योदय के बाद सकडालपुत्र गोशालक के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था। इतने में संवाद मिला—नगर के सहस्राभवन में भगवान् महावीर पधारे हैं। सकडालपुत्र ने सोचा—'यह क्या! मुझे तो गोशालक के आगमन की सूचना मिली थी, आये भगवान् महावीर। देववाणी असत्य तो नहीं होती। यह क्या हुआ? खैर, चलो। भगवान् महावीर भी तो जिन और देवाधिदेव कहलाते हैं। हो सकता है, देव ने उनके लिए ही संकेत दिया हो। मुझे वहाँ चलना चाहिए।' यों विचारकर सपरिवार प्रभु के दर्शनार्थ वहाँ पहुँचा । भगवान् ने बात का भेद खोलते हुए देशना के बाद सकडालपुत्र से पूछा-'कल तुम्हें एक देव ने कुछ संकेत दिया था। तुमने महामाहन का अर्थ गोशालक से समझा । क्या यह सत्य है?' सकडालपुत्र ने कहा—'हाँ प्रभु ! मैं गोशालक को समझा, यह बात सत्य है।' भगवान् ने कहा—'अब तो तुम्हें विश्वास हो गया होगा कि देव का संकेत गोशालक के लिए नहीं था।' __तब सकडालपुत्र ने कहा -'प्रभु, आप कह रहे हैं, वह सही है। अब मेरी प्रार्थना है—आप मेरी कुंभकारापणशाला में विराजें।' सकडालपुत्र की प्रार्थना स्वीकार करके भगवान् वहाँ पधारे। सकडालपुत्र गोशालक का अनुयायी था। उसका सिद्धान्त था—'जो होने वाला है, वह होता है। पुरुषार्थ करने की कोई आवश्यकता नहीं है।' उसे समझाने के लिए भगवान् महावीर ने कहा—'सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन जो बने हैं. कैसे बने हैं?' सकडालपुत्र—'ये तो बनने थे, इसलिए बन गये। इसमें किसी प्रकार के प्रयत्न की जरूरत नहीं थी।' ___महावीर—'मान लो, इन बर्तनों को कोई फोड दे, चुरा ले, इधर-उधर फेंक दे या तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ कोई बलात्कार करे तो उस समय तुम क्या करोगे? क्या उस दुष्ट अनार्य को दण्ड दोगे?' सकडालपुत्र—'भगवन् ! यह भी कोई पूछने की बात है? ऐसे दुष्ट अपराधी को मैं कैसे छोडूंगा? उसे कठोर से कठोर दण्ड दूंगा। प्राण तक भी ले लूंगा।'
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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