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________________ ३०६. जैन कथा कोष संयोग की बात, दौड़ते समय वहाँ उसके पैर में काँटा चुभ गया। अब क्या करता? बाध्य होकर काँटा निकालने बैठा । कानों में दी हुई अंगुलियाँ निकालनी पैड़ी। सहसा उसके कान में प्रभु महावीर का एक वाक्य पड़ा जो उस समय भगवान महावीर प्रसंगवश कह रहे थे—देवताओं के चार चिह्न होते हैं १. वे आँखों की पलक नहीं झपकाते। २. उनकी प्रतिच्छाया नहीं पड़ती। ३. भूमि से चार अंगुल ऊपर रहते हैं, तथा ४. उनके गले में रहने वाली माला नहीं कुम्हालती। 'रोहिणेय' ने सोचा-बुरा हुआ। 'महावीर' की बात मेरे कान में पड़ गई। इसे भूलना है। ज्यों-ज्यों भूलने का प्रयत्न करता, त्यों.त्यों वह अधिक याद होता। उन दिनों नगर में चोरियाँ अधिक होती थीं। सारे शहर में आतंक छाया हुआ था। 'रोहिणेय' को गिरफ्तार कर लिया गया। पर इसके पास माल कुछ भी नहीं मिला। बिना प्रमाण के हो भी क्या? अन्त में अभयकुमार को एक युक्ति सूझी। मादक द्रव्य के योग से उसे मूर्च्छित कर दिया गया। उसी अवस्था में राजमहल में सुन्दर शय्या पर लिटा दिया। चारों ओर देवियों की भांति सिखाकर स्त्रियों को सज्जित करके खड़ा कर दिया गया। कुछ समय बाद जब उसका नशा उतरा, उसने आँखें खोलीं। तब देवियों की भांति उन स्त्रियों ने कहा—नाथ ! आपने पूर्वजन्म में कौन से सत्कर्म किये थे, जिसके योग से यहाँ हमारे स्वामी बने। आपको पाकर हम कृतकृत्य हैं। अभय ने सोचा था—इस प्रश्न के उत्तर में यह कहेगा मैंने सत्कर्म नहीं अपितु चौर्यकर्म किया था। बस, इसी आधार पर पकड़ लिया जायेगा। पर रोहिणेय भी असमंजस में पड़ा। क्या सचमुच ही मैं स्वर्गलोक में आ गया हूँ? क्या यह स्वर्ग ही है? इतने में भगवान महावीर की वे चारों बातें याद आयीं। इसने देखा—ये तो पलकें झपकाती हैं, छाया भी पड़ती है, मालाएं भी कुम्हलाई हुई हैं तथा भूमि पर खड़ी भी हैं। हो न हो कोई प्रपंच है। यों सोचते ही सम्हलकर बोला—'मैंने बहुत से सत्कर्म किये थे' इसलिए यहाँ आया हूँ। 'अभय' का षड्यन्त्र असफल हो चुका था। 'अभय' प्रकट हो गया। 'रोहिणेय' ने सोचा-भगवान् महावीर के एक वाक्य ने ही मेरी रक्षा
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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