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जैन कथा कोष २६१
निवासी 'मौर्य' ब्राह्मण के पुत्र थे। इनकी माता का नाम 'विजयदेवी' था । ये चार वेद, चौदह विद्या के पारंगत थे। साढ़े तीन सौ शिष्यों के अध्यापक थे । इनके मन में सन्देह था - 'देव हैं या नहीं?' यह सन्देह भगवान् महावीर द्वारा मिटाए जाने पर पैंसठ वर्ष की आयु में संयम स्वीकार कर लिया। सातवें गणधर बने । चौदह वर्ष छद्मस्थ रहे । अस्सीवें वर्ष में केवलज्ञान प्राप्त किया । सोलह वर्ष केवलज्ञानी रहे । अनेक जीवों का मार्गदर्शन करते रहे। पिचानबे वर्ष की आयु में प्रभु महावीर के जीवनकाल में ही मोक्ष में जा विराजे ।
- आवश्यकचूर्णि
१६५. आर्य मंगूसूरि
वे
आर्य मंगू आर्य सागर के शिष्य थे। एक बार अनेक प्रदेशों में विहार करते हुए उत्तरमथुरा में आए। ये बहुश्रुत और बहुशिष्य परिवार वाले थे ।
मथुरावासियों को इनकी उपदेश शैली बहुत अच्छी लगी। वे इनकी बहुत भक्ति करते और दूध, दही, घृत आदि से लाभान्वित करते ।
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श्रमण संघ ने जब-जब वहाँ से विहार करने का विचार किया, तब-तब मथुरावासियों ने अत्यधिक आग्रह करके रोक लिया । साथ ही आचार्यश्री को जो श्रद्धा-भक्ति और सुस्वादु भोजन प्राप्त हो रहा था, उससे उसके मन में भी रसासक्ति — मोहासक्ति जागृत हो चुकी थी । इसलिए वे भी श्रद्धालु भक्तों का आग्रह मानकर रुक जाते ।
संघ के अन्य साधुओं ने आर्य मंगू को वहाँ से विहार करने के लिए बहुत आग्रह किया, लेकिन जब वे नहीं माने तो संघ के अन्य साधु वहाँ से विहार कर गये और आर्य मंगू वहीं रह गये ।
स्थिरवास और सुस्वादु भोजन के कारण आर्य मंगू तप-संयम आदि साधना में शिथिल हो गये। वे प्रमाद का सेवन करने लगे। प्रमाद दशा में ही उन्होंने अपनी आयु पूर्ण की और चारित्रधर्म की विराधना के कारण यक्ष योनि में उत्पन्न हुए ।
जब उन्होंने अवधिज्ञान से अपना पूर्वजन्म देखा तो उन्हें घोर पश्चात्ताप हुआ — अहो ! मैंने अपनी दुर्बुद्धि के कारण चारित्रधर्म की विराधना की । जिस श्रामणी दीक्षा का फल स्वर्ग-मोक्ष है, मैंने उसमें प्रमाद का सेवन किया, इसी कारण यक्ष योनि में उत्पन्न होना पड़ा है। सच है, चतुर्दशपूर्वी को भी