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________________ २६२ जैन कथा कोष और लावण्य मैंने कहीं नहीं देखा। उसको देखते हुए आँखें थक नहीं रही थीं । तब राजा चन्द्रच्छाया का अनुराग मल्लि के प्रति जागृत हुआ । उसने मल्लि की - याचना के लिए अपना दूत वहाँ भेजा । ३. राजा रूपी 'रूपीराजा' नाम का राजा ' श्रावस्ती' नगरी में राज्य करता था । उसकी पुत्री का नाम 'सुबाहु' था। एक बार उसके चातुर्मासिक मज्जनक महोत्सव के समय राजा ने नगर के चौराहे पर एक सुन्दर मण्डप बनवाया। समूचे दिन वह वहीं बैठा रहा। कन्या 'सुबाहु' सज्जित होकर पिता के पास आयी। पिता को प्रणाम किया, तब पिता ने उसे अपनी गोद में बैठा लिया। अपनी कन्या के रूप पर हर्षित हुआ फूला नहीं समा रहा था । पास में बैठे वर्षधर नाम के अन्तःपुर रक्षक से पूछा- 'क्या अन्य किसी कन्या का ऐसा मज्जनक महोत्सव देखा है ? ' वर्षधर ने विनम्र होकर कहा - 'राजन ! जैसा 'कुंभ' राजा की पुत्री 'मल्लि' का मज्जनक महोत्सव हुआ, उसके सामने यह कुछ भी नहीं । ' इतने संवाद से ही राजा का पूर्वजन्म का प्रेम जागृत हो गया। उसने मल्लि के साथ विवाह करने का प्रस्ताव देकर दूत को मिथिला- नरेश कुंभ के पास भेज दिया । ४. राजा शंख एक बार मल्लिकुमारी के कुंडलों की संधि टूट गई। उसे जोड़ने के लिए महाराज कुंभ ने अनेक स्वर्णकारों को बुलाया, पर वे सारे उसे जोड़ने में असफल रहे । राजा ने कुपित होकर उन सब को यह कह कर देश निकाला दे दिया- ' ऐसे अकुशल कलाकार मेरे राज्य में कलंक - स्वरूप हैं । ' वे स्वर्णकार इधर-उधर भटकते-भटकते वाराणसी के महाराज 'शंख' की शरण में गये। राजा ने उन सबके आने का कारण पूछा, तब उन सबने सहीसही सारी बात बता दी। राजा ने पूछा—' मल्लिकुमारी कैसी है? ' स्वर्णकारों ने कन्या के रूप की भूरि-भूरि प्रशंसा की । राजा 'मल्लि' पर आसक्त हो गया। उसने विवाह का प्रस्ताव देकर दूत को महाराज 'कुंभ' के पास भेजा ।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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