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________________ २६० जैन कथा कोष ___ १५१. मरुदेवी माता इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में 'विनीता' नगरी में एक युगल पैदा हुआ, जिसका नाम था 'नाभि' और 'मरुदेवी'। उस युग की परिपाटी के अनुसार दोनों का विवाह हुआ। यह वह समय था, जब यौगलिक परंपरा समाप्त प्राय थी। कुलकर व्यवस्था चल रही थी। राज्य-प्रणाली की प्रतिस्थापना हो, यह आवश्यक-सा प्रतीत हो रहा था। 'नाभि' चौदहवें कुलकर हुए। 'मरुदेवी' के भी एक युगल उत्पन्न हुआ, जिसका नामकरण हुआ—'ऋषभदेव' और 'सुमंगला'। भगवान 'ऋषभनाथ' असि, मसि, कृषि कर्म का प्रशिक्षण देकर राज्य व्यवस्थित करके संयमी बने। मरुदेवी पुत्र के मोह में व्याकुल रहने लगी। एक बार चक्रवर्ती 'भरत' जब माता 'मरुदेवा' को प्रणाम करने आये तब शोकाकुल 'मरुदेवी' ने भरत को बहुत-बहुत उलाहने दिये । यहाँ तक कह दिया कि तू तो राज्य में लुब्ध बना बैठा है। तुझे क्या पता 'ऋषभ' सुखी है या दुःखी है। उसे कौन भोजन खिलाता होगा? कौन पानी पिलाता होगा? भूखा-प्यासा बेहाल बना ज्यों-त्यों अपना समय काटता होगा। ___'भरत' को अपनी भूल पर अनुताप हुआ। सेवकों को शीघ्रातिशीघ्र पता लगाकर संवाद देने का आदेश दिया। इतने में संवाद मिला कि प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। वे इस समय विनीता नगरी के बाहर विराजमान हैं और समवसरण में देशना दे रहे हैं। महाराज 'भरत' 'मरुदेवा' को दर्शनार्थ समवसरण की ओर ले चले। हाथी के हौदे पर बैठी हुई माता मरुदेवा दूर से ही भगवान् 'आदिनाथ' का वह तीर्थंकरोचित ऐश्वर्य देखकर चकित रह गई। मन ही मन सोचने लगी—मैं तो चिन्ता कर रही थी कि वह दु:खी होगा, पर यह तो यों सुखों में झूल रहा है। अद्भुत ऐश्वर्य है इसका ! मेरी ओर देखता भी नहीं। __यों विचार करते-करते संसार की असारता का ज्ञान हुआ। भावना का प्रवाह बहुत ही वेग से प्रभावित हुआ। हाथी पर बैठे-बैठे ही क्षपक श्रेणी चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में जा विराजीं। महाराज 'भरत' जब प्रभु के दर्शन करते हैं, तब प्रभु सहसा फरमाते हैं'मरुदेवा भगवई सिद्धा'-मरुदेवा भगवती मोक्ष में पहुँच गई हैं। 'भरत' चौंके । आकर देखते हैं—हाथी पर बैठे-बैठे ही माता मरुदेवा दिवंगत हो गई हैं।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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