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जैन कथा कोष २०५
मुग्ध हूँ और तुझे अपनी पटरानी बनाने के लिए घर ले जा रहा हूँ।' 'मदनरेखा' ने साहस बटोरा । मणिप्रभ से कहा- मुझे भी पहले अपने पिताश्री के दर्शन तो करा दीजिए ।
विद्याधर भी उसे सन्तुष्ट करने अपने पिता के पास ले आया । मुनिवर ने अपने ज्ञानबल से 'मणिप्रभ' की कुत्सित भावना देखकर समयोचित प्रेरणा दी । 'मणिप्रभ' ने 'मदनरेखा' पर बुरी नजर न करने और न सताने का संकल्प लिया ।
'मदनरेखा' ने अपना संकट टला देखकर मुनिवर के प्रति आभार व्यक्त किया और विनम्र होकर मुनि से पूछा— गुरुदेव ! जिस बालक को मैं वृक्ष की डाली पर लटकाकर आयी थी, उसका क्या हुआ?
मुनिराज ने अपने ज्ञानबल से सारा घटनाक्रम देखकर कहा— सती ! तेरे पुत्र को वहाँ से मिथिलानरेश 'पद्मरथ' अपने यहाँ ले गया है। उसके कोई पुत्र न होने के कारण ही उसे अपना पुत्र मानकर लालन-पालन कर रहा है। संयोग की बात, तेरे पुत्र के वहाँ पहुँचते ही जो राजा 'पद्मरथ' की आज्ञा स्वीकार नहीं करते थे, वे अब सारे पैरों में नतमस्तक हैं। इसलिए उसका नाम 'नमि' रखा गया है।
मदनरेखा अपने पुत्र को सुखी जानकर संतुष्ट हो गई। इतने में आकाश से एक देव आया । मुनिवर को नमस्कार कर 'मदनरेखा' को भी नमस्कार किया। अपनी दिव्य सम्पत्ति दिखाई |
विद्याधर के पूछने पर मुनि ने बताया — यह इस सती के पति 'युगबाहु'. का जीव है। धार्मिक सहयोग देने के कारण सती का आभार मान रहा है।
देवता सती को अपने विमान में बिठाकर ले जाने लगा । 'मणिरथ' की मृत्यु का दुःखद संवाद बताते हुए कहा- अब सुदर्शनपुर का अधिशास्ता तेरा बड़ा पुत्र 'चन्द्रयश' हुआ है । कहो तो तुम्हें वहाँ पहुँचा दूँ?
'मदनरेखा' ने साध्वी बनने की भावना व्यक्त की और कहा- मैं संसार का नाटक देख चुकी हूँ और अधिक देखना नहीं चाहती हूँ। भला जहाँ भाई ही भाई के प्राणों का ग्राहक बन जाता है, एक व्यक्ति एक पर यों मुग्ध हो सकता है, बस उस संसार को दूर से नमस्कार है— यों कहकर साध्वीव्रत स्वीकार कर लिया ।
'नमिराज' उधर युवावस्था में पहुँचा । एक हजार स्त्रियों के साथ उसका