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जैन कथा कोष १०३ ५८. कृष्ण वासुदेव वासुदेव कृष्ण 'वसुदेवजी' की महारानी 'देवकी' के पुत्र थे। इनका जन्म उनके मामा कंस' के यहाँ 'मथुरा' में हुआ। 'कंस' की पटरानी 'जीवयशा' . ने अपने सांसारिक नाते के देवर मुनि अतिमुक्तक से उपहास किया था कि देवर, यों गौ के टल्ले मात्र से गलियों में क्यों गिरते फिर रहे हो। इस साधु वेश को छोड़ दो, महलों में आओ। अपनी बहन देवकी के विवाह में हम सब मिलकर गीत गायें। इस उपहास से तपस्वी अतिमुक्तक उद्विग्न हो उठे। रूखे स्वर में बोले—'तू गर्वोन्मत्ता होकर मेरे साथ गीत क्या गायेगी? गीत तो तब गाना जब वैधव्य प्राप्त कर ले। देख, इसी देवकी का सातवाँ पुत्र तेरे कुल का नाश करने वाला होगा।'
कंस को जब मुनि के इस भविष्य-कथन का पता चला तो वह भौंचक्का रह गया। चिकनी-चुपड़ी बातें करके वसुदेव को तब तक वहीं रहने के लिए राजी कर लिया, जब तक कि देवकी के सात सन्तान न हो जाएं।
देवकी के एक के बाद एक छः बालक देवता के योग से सुलसा के यहाँ पलने लगे। सुलसा के छः मृत बालकों को कंस ने पटक-पटककर मार दिया।
सातवें प्रसव की कंस प्रतीक्षा करने लगा। चौकीदारों को भी विशेष सतर्क रहने के लिए कह दिया। पर संयोग की बात, जिस दिन, भाद्रव कृष्णा अष्टमी की अर्धरात्रि में, श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, उस समय सारे पहरेदार गहरी नींद में निमग्न हो गये। वसुदेव इन्हें लेकर गोकुल में नन्द के यहाँ दे आये। वहाँ यशोदा के हाथों इनका लालन-पालन होने लगा। श्रीकृष्ण गोकुल में बड़े हुए
और कंस का संहार किया। जरासंध के भय से समुद्रविजय आदि श्रीकृष्ण को लेकर सौरिपुर से चल पड़े। पश्चिम की ओर समुद्रतट पर श्रीकृष्ण के लिए देवों ने एक नगरी बसाई जिसका नाम 'द्वारिका' रखा। जरासंध भी वहाँ चढ़कर गया। दोनों में घोर संग्राम हुआ। उसमें जरासंध की मृत्यु श्रीकृष्ण के हाथ से हुई। यों श्रीकृष्ण तीन खण्ड के स्वामी बन गये। पाँचों पाण्डव श्रीकृष्ण के निकट के मित्र थे। समुद्रविजय के पुत्र अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) श्रीकृष्ण के भाई थे। सत्यभामा, रुक्मिणी, जांबवती, गौरी आदि श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ थीं।
श्रीकृष्ण के छोटे भाई गज सुकुमाल मुनि के निर्वाण पर कृष्ण का दिल विदीर्ण हो उठा। भगवान् नेमिनाथ से अपनी मृत्यु और द्वारिका के भविष्य के