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जैन कथा कोष ६७ वह नहीं कर सका अत: माता को आज्ञा दे दी। रानी प्रतिदिन मिलने जाने लगी। वह अपने केशों के जूड़े में छिपाकर खाद्य-सामग्री ले जाती। यों श्रेणिक बन्द पिंजड़े में अपना समय गुजार रहा था।
एक दिन कूणिक भोजन करने बैठा था। चेलणा भी पास बैठी थी। कूणिक की गोदी में उसका पुत्र था। उसने भोजन के थाल में पेशाब कर दिया। कूणिक ने बहुत ही प्रेम से उस पेशाब को पोंछ दिया तथा मूत्र से भीगे भोजन को अलग रखकर शेष भोजन खाने लगा। वह माँ की ओर देखकर बोला—'माँ ! पुत्र के प्रति जितना मेरा प्रेम है उतना संसार में किसी भी पिता का शायद ही हो।' माता मौका देखकर सीधा बाण फेंकती हुई उकरड़ी की सारी बात सुनाते हुए बोली-'तेरे पिताजी ने यों अपने मुँह से सडी-गली अंगुली को चूसकर तेरा दर्द दूर किया और तू ऐसा निकला। ऐसे वात्सल्य-मूर्ति पिता को कैदखाने में डाला, तनिक भी विचार नहीं आया।'
कूणिक इस अकल्पित घटना को सुनकर चौंका । अपने किये हुए दुष्कृत्य पर पश्चात्ताप करता हुआ माता के पैरों में गिर पड़ा। पश्चात्ताप भरे स्वर में बोला—'मैं अभी जाकर पिताजी के बन्धन खोलकर मुक्त करता हूँ'-यों कहकर सपाटे से चला बन्धन तोड़ने के लिए। हाथ में वहीं पास में पड़ी लोहे की तीक्ष्ण कुठार ले ली।
राजा श्रेणिक ने ज्योंही कूणिक को कुठार लिये अपनी ओर आते देखा तो सोचा—हो न हो मेरा किसी पूर्वजन्म का वैरी है, पूरा-पूरा वैर लिये बिना नहीं मानेगा। इसके हाथ से मरने की अपेक्षा अपने आप मरना अच्छा है। यों सोचकर हीरे की अंगुठी निगल गया और तत्क्षण ही उसकी मृत्यु हो गई।
कूणिक ने जब पिंजड़े में अपने पिता को मृत दशा में पाया, तब मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर गया। होश में आकर भारी अनुताप करने लगा। पितृ-वियोग से व्यथित होकर उसने राजगृह का परित्याग कर दिया और चम्पापुरी में अपना निवास कर लिया। वहीं से चमरेन्द्र और सौधर्मेन्द्र की सहायता प्राप्त करके चेटक के साथ महाशिला कंटक संग्राम किया। उसमें महाभयंकर नरसंहार हुआ। फिर भी कहने के लिए कूणिक विजयी अवश्य हुआ।
वह भगवान् महावीर का अनन्य भक्त था। प्रभु के सुख-संवाद प्र