SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० जैन कथा कोष पर परस्पर साम्य दिखाई दिया । उन्हें शंका हुई— हम परस्पर भाई-बहिन तो नहीं हैं? दूसरे दिन अपने - अपने माता-पिता से पूछा तो उन्होंने स्पष्ट बता दिया— हमें तुम दोनों एक काठ की पेटी में बहते हुए यमुना नदी में मिले थे, हमने तो सिर्फ तुम्हारा पालन-पोषण किया है। यह सुनकर उन दोनों को विश्वास हो गया कि हम परस्पर भाई-बहिन ही हैं 1 इस घटना को सुनकर दोनों के सिर लज्जा से झुक गये। कुबेरदत्त तो शौरीपुर छोड़कर ही चल दिया और कुबेरदत्ता ने एक मुनि से संयम स्वीकार कर लिया तथा साध्वी बनकर गुरुणीजी के नेश्राय में तपस्या करने लगी । तपस्या के बल पर उसे अवधिज्ञान की प्राप्ति हो गई। उसने अपने मन पर भी अच्छी विजय प्राप्त कर ली । अवधिज्ञान प्राप्त होने पर साध्वी कुबेरदत्ता को अपने भाई कुबेरदत्त के बारे में जानने की इच्छा हुई। उसने ज्ञानबल से देखा तो ज्ञात हुआ कि उसका भाई कुबेरदत्त उसी कुबेरसेना नामक वेश्या के साथ भोग भोगने में लीन है। उसके एक पुत्र भी हो चुका है । उसे माता-पुत्र का यह भोग- सम्बन्ध बहुत अखरा । माता-पुत्र को इस सम्बन्ध से विरत् करने का निश्चय करके गुरुणीजी से आज्ञा माँगी और आज्ञा प्राप्त होते ही मथुरा नगरी में पहुँचकर वेश्या कुबेरसेना के घर ही ठहरी । वेश्या ने भी उसे अपने घर ठहरने की इजाजत तब दी, जब साध्वीजी ने उसके शिशु को खिलाना स्वीकार कर लिया । यद्यपि साधु-धर्म के अनुसार किसी गृहस्थी के शिशु को खिलाना वर्जित है, पर साध्वी कुबेरदत्ता ने यह शर्त इसलिए स्वीकार कर ली कि वह किसी तरह इस पापाचार को रोक सके । I रात्रि के समय कुबेरदत्त वेश्या कुबेरसेना के पास आया। कुबेरसेना ने वह शिशु साध्वी को दिया और कहा – इसे खिलाओ । साध्वी शिशु को लेकर बगल की कोठरी में चली गई। लेकिन शिशु रोने लगा। इससे वेश्या के कामभोग में बाधा पड़ी। उसने साध्वी को फटकारा और शिशु को चुप कराने को कहा। तब साध्वीजी बालक से कहने लगी- बालक ! तू रो मत। तेरे साथ मेरे छः नाते हैं, उन्हें सुन (१) पहले नाते से तू मेरा भाई है, क्योंकि तेरी और मेरी माता एक है (२) दूसरे नाते से तू मेरा देवर है, क्योंकि तू मेरे पति का छोटा भाई है ।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy