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________________ बन्धक अर्थात् कर्मों से बँधा हुआ जीव । किस जीव को कौन - सा कर्म बाँधता है, कब बाँधता है, क्यों बाँधता है, इसका वर्णन इस अधिकार में है । 1. गतिमार्गणा के अनुसार नारकी और तिर्यंच जीव बन्धक हैं 1 2. मनुष्य बन्धक भी है और अबन्धक भी । 3. सिद्ध अबन्धक हैं। अयोगकेवली भी अबन्धक हैं । 4. जब तक मन, वचन, काय एवं योग की क्रिया विद्यमान रहती है तब तक जीव बन्धक रहता है। तीसरा खंड : बन्धसामित्त विचय (बन्धस्वामित्व विचय) विचय शब्द का अर्थ है - विचार, मीमांसा या परीक्षा करना । इस खंड में कुल 324 सूत्र हैं। इनमें कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों के बन्ध करनेवाले स्वामियों का विचार किया गया है। इसमें बताया है कि कर्मबन्ध के स्वामी कौन से गुणस्थानवर्ती और मार्गणास्थानवर्ती जीव हैं । प्रारम्भ के 42 सूत्रों में गुणस्थान के क्रम से बन्धक जीवों का वर्णन किया है। कर्मसिद्धान्त की अपेक्षा किस गुणस्थान में भेद और अभेद की तुलना से कितनी प्रकृतियों का स्वामी कौन जीव होता है। इसका विशद विवेचन यहाँ किया गया है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया का इसमें सूक्ष्म वर्णन है । चौथा खंड : वेदना खंड यहाँ पर वेदना का अर्थ दुख नहीं है । वेदना अर्थात् ज्ञान है । इस चतुर्थ खंड में प्रारम्भ में मंगलाचरण किया है। इसमें मंगलसूत्र मिलते हैं । अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रथम मंगलाचरण प्रारम्भ के तीन खंडों का है और द्वितीय मंगलारण शेष तीन खंडों का । आगम में ग्रन्थ के प्रारम्भ में और मध्य में मंगलाचरण करने का जो सिद्धान्त प्रतिपादित है, उसका समर्थन इस ग्रन्थ से हो जाता है । वेदनाखंड में कुल 1,499 सूत्र हैं । यह खंड दो भागों में विभक्त है - कृति और वेदना खंड । कृति अनुयोगद्वार : इसमें 75 सूत्र हैं, जिनमें 44 सूत्रों में मंगलाचरण किया गया है और शेष सूत्रों में कृति के नाना भेद बतलाकर उनका स्वरूप बतलाया है । वेदना अनुयोगद्वार : इस प्रकरण को निम्न 16 अधिकारों में बाँटा गया 84 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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