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श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया। श्रीकृष्ण जरासन्ध के शव को देख-देखकर बहुत रोए। उन्हें उसके मरण पर बहुत शोक हुआ । युद्धोपरान्त श्रीकृष्ण ने घायलों का उपचार और मृतकों का विधिपूर्वक दाहसंस्कार कराया। द्वारका पहुँचने पर बलभद्र और नारायण का राज्याभिषेक हुआ। राजगृही का राज्य जरासन्ध के पुत्र सिंहदेव को, मथुरा का राज्य उग्रसेन के पुत्र द्वार को, शौरीपुर का राज्य समुद्रविजय के पुत्र रथनेमि को, हस्तिनापुर का राज्य पांडवों को और कौशलदेश का राज्य हिरण्यनाभि के भाई रुक्मनाभ को दिया गया। सभी लोग प्रसन्न होकर अपनेअपने स्थान को गये और सभी यादव द्वारका में सुखपूर्वक काल व्यतीत करने लगे ।
ज्ञात हो कि इससे पूर्व राजा समुद्रविजय और रानी शिवमती के श्री नेमिनाथ (बाईसवें तीर्थंकर) का जन्म हो चुका था और देवगण उनके गर्भ-जन्म कल्याणक मना चुके थे। अब वे दूल्हा बनकर भोजवंशियों की बेटी राजमति को ब्याहने जा रहे थे। वहाँ किसी ने मृगादि पशुओं को रोक रखा था । नेमिनाथ ने सारथी से उसके बारे में पूछा। सारथी ने बताया - " हे नाथ! यादव परजिनधर्मी हैं, वे तो शाकाहारी ही हैं, पर कुछ अन्य भील - राजा भी आपके विवाह में आए हैं, जो मांसाहारी हैं; ये पशु उन्हीं के लिए लाए हैं।" करुणानिधान नेमिनाथ का हृदय यह सुनकर रो पड़ा। उन्होंने अत्यन्त मार्मिक उद्बोधन से सभी को समझाया, पशुओं को बन्धनमुक्त कराया और फिर अपने आपको समझाने लगे । विषयभोगों की असारता का विचार करते-करते उन्हें वैराग्य हो गया। इतने में लौकान्तिक देव भी आ गये । नेमिनाथ का दीक्षाकल्याणक मनाया गया। उन्होंने गिरनार पर्वत पर जाकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली । राजमति बहुत दुखी हुई, पर बाद में गुरुजनों के उपदेश से उसने धैर्य धारण किया और शान्त चित्त से संसार और शरीरभोगों से विरक्त होकर उसने भी जिनदीक्षा धारण कर ली ।
एक दिन नेमिनाथ स्वामी को आत्मध्यान के बल से लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्रकट हो गया। देवों ने केवलज्ञानकल्याणक मनाया । इन्द्र की आज्ञा से अद्भुत समवसरण की रचना हुई । भगवान नेमिनाथ ने समवसरण सहित अनेक देशों में विहार कर वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन किया, जिसे सुनकर अनेक जीवों ने मोक्षमार्ग की प्राप्ति की ।
एक बार बलभद्र ने भगवान नेमिनाथ से द्वारका की स्थिति, अपने संयम और वासुदेव के मरण के विषय में पूछा। भगवान नेमिनाथ ने कहा- द्वारका बारह वर्ष बाद द्वीपायन के निमित्त से जल जाएगी, जरत्कुमार के बाण से जंगल
52 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय