SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुखमा, सुखमा-दुखमा, दुखमा-सुखमा, दुखमा, दुखमा-दुखमा। ये ही अपने विपरीत-क्रम से उत्सर्पिणी के नाम हैं। उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी और अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी-ऐसा कालक्रम यहाँ अनादि से चल रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा। इसका कोई कर्ता-धर्ता नहीं है। इनमें से इसी अवसर्पिणी के चौथे काल की बात है। जब यहाँ दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ सशरीर विराजमान थे, तब हरिवंश की उत्पत्ति हुई। नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त के समय तक तो यहाँ इक्ष्वाकुवंश ही चलता रहा, किन्तु दसवें तीर्थंकर के समय हरिवंश की उत्पत्ति हुई । वह इस प्रकार है वत्सदेश की कौशांबी नगरी में राजा सुमुख राज्य करता था। एक दिन वह वीरक सेठ की पत्नी वनमाला पर आसक्त हो गया। वनमाला भी राजा सुमुख पर आसक्त हो गयी। राजमन्त्री और राजदूतों के प्रयासों से वनमाला और सुमुख ने एक रात्रि में मिलकर विविध कामक्रीड़ाएँ कर लीं। प्रात:काल होने पर भी वनमाला सेठ के घर नहीं पहुँची, अपितु राजा सुमुख की पटरानी बन गयी। इस प्रकार यद्यपि इन दोनों ने परस्त्री/परपुरुष के सेवन का घोर पाप किया, किन्तु एक बार एक महामुनिराज को नवधाभक्तिपूर्वक आहार दिया और अपने दुष्कृत्य का प्रायश्चित्त कर प्रबल-पुण्य उपार्जित किया। फलस्वरूप, दोनों मरकर विजयाद्धगिरि पर विद्याधर-दम्पती बने। इधर वह वीरक सेठ वनमाला के वियोग से दुखी होकर मुनि बन गया और मरकर पहले स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ उसने अपने अवधिज्ञान से पूर्वजन्म की सारी बातें जान लीं और अपने अपमान का बदला लेने के लिए वह विजयार्द्धगिरि पर आया। उसने विद्याधर-दम्पती की विद्या छीन ली और उन्हें दक्षिण भारत की चम्पापुरी का राज्य दे दिया। चम्पापुरी इस समय अपने राजा अर्ककीर्ति के मर जाने से अनाथ थी। चम्पापुरी में इस विद्याधर-दम्पती के एक हरि नाम का पुत्र हुआ। पिता की मृत्यु के बाद चम्पापुरी का राजा हरि बना। हरि की सन्तान हरिवंशी कहलाई। इस हरिवंश में स्वर्गमोक्षगामी अनेक महान राजा हुए। बीसवें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ भी इसी हरिवंश में उत्पन्न हुए थे। आगे चलकर इसी हरिवंश में एक अभिचन्द्र नाम का राजा हुआ। इसने वेदीपुर नाम का एक शहर बसाया। वेदीपुर में एक ब्राह्मण रहता था-क्षीरकदम्ब। उसके अनेक शिष्य थे, जिनमें तीन प्रमुख थे-राजा अभिचन्द्र का पुत्र वसु, उसका स्वयं का पुत्र पर्वत और एक अन्य ब्राह्मण नारद। कुछ समय बाद क्षीरकदम्ब ब्राह्मण और राजा अभिचन्द्र ने जिनदीक्षा धारण कर ली। वेदीपुर का राजा वसु बना। वसु स्फटिक 46 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy