SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इधर राजा अतिवीर्य भरत के प्रति अभिमान दिखा रहा था, ऐसा समाचार पाकर राम और लक्ष्मण उसके पास जाकर उसे समझाते और फटकारते हैं और बन्धन में लेते हैं । तब सीता के कहने पर उसे बन्धन मुक्त करते हैं, जिससे वह दीक्षा ले लेता है। इस तरह राम लक्ष्मण रात्रिमेघ की तरह अव्यक्त रूप से भरत की रक्षा कर आगे बढ़ते हैं। वंशस्थधुति नगर में राम-लक्ष्मण तथा सीता देशभूषण तथा कुलभूषण मुनिराज के दर्शन करते हैं। उनका उपसर्ग दूर करते हैं और जिनेन्द्र भगवान की हजारों प्रतिमाओं से सुशोभित अनेक जिनमन्दिरों का निर्माण कराते हैं। कर्णरवा नदी के पास दंडकवन में सुगुप्ति और गुप्ति नामक दो मुनिराजों को भी आहारदान देते हैं, जिससे दंडक वन में पंचाश्चर्य होते हैं। मुनिराज के दर्शन से ही गृद्ध पक्षी को पूर्वभव का ज्ञान होता है। राम उसे जटायु नाम देते हैं और अपने आश्रम में रखते हैं। एक दिन लक्ष्मण वन में भ्रमण करते हैं, उनके द्वारा शम्बूक (रावण की बहिन चन्द्रनखा का पुत्र) मारा जाता है। जिससे चन्द्रनखा विलाप करती हुई राम-लक्ष्मण के पास जाती है, परन्तु कामेच्छा पूर्ण न होने पर चन्द्रनखा पुत्रशोक करती हुई अपने पति खरदूषण के पास जाती है। खरदूषण राम-लक्ष्मण के साथ युद्ध करने लगता है, रावण भी उसकी सहायता के लिए आता है, बीच में सीता को देख मोहित हो जाता है। और वह छल से सिंहनाद कर राम को लक्ष्मण के पास भेज देता है और सीता का हरण कर लेता है। जटायु अपनी शक्ति अनुसार प्रयत्न करता है, पर वह सफल नहीं होता है। राम जब वापिस आते हैं, तो सीता को न देखकर विलाप करते हैं। लक्ष्मण भी बहुत दुखी होते हैं और विराधित विद्याधर को सेना सहित सीता की खोज में भेजते हैं, पर वह असफल हो जाते हैं। सीता के वियोग से दुखी राम सीता की खोज करते हैं। रावण सीता को लेकर लंका जाता है। वहाँ पश्चिमोत्तर दिशा में स्थित देवारण्य नामक उद्यान में सीता को ठहराकर उससे प्रेम याचना करने लगता है। शीलवती सीता उसकी समस्त प्रार्थनाएँ ठुकरा देती है। रावण माया द्वारा सीता को भयभीत करने का प्रयत्न करता है पर वह रंचमात्र भी विचलित नहीं होती।। रावण की दुर्दशा देख मन्दोदरी उसे बहुत समझाती है, सीता मन्दोदरी को भी निःशब्द कर देती है। किष्किन्धापुरी का स्वामी सुग्रीव, मायावती सुग्रीव (साहसगति विद्याधर) पद्मपुराण :: 37
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy