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________________ 10. परमभक्ति अधिकार (गाथा 134-140) परमभक्ति का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो मुनि आत्मा को आत्मा के साथ निरन्तर जोड़ता है वह निश्चय से योगभक्ति वाला मुनि है। श्रावक या श्रमण जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की भक्ति करता है, वही वास्तव में निर्वाणभक्ति या जिनभक्ति है। जो जीव मोक्षमार्गी जीवों के गुणभेद जानकर उनकी भक्ति करता है वही व्यवहार भक्ति है। अतः जो जीव मोक्षमार्म में आत्मा को सम्यक् प्रकार से स्थापित करके निर्वाण (मोक्ष) की भक्ति करता है, रत्नत्रय धर्म की भक्ति करता है, वास्तव में वही आत्मा को प्राप्त करता है। 11. निश्चयपरमावश्यक अधिकार (गाथा 141-150) आवश्यक अर्थात् जो जीव दूसरों के वश में नहीं है उसके आवश्यक कर्म। निरन्तर अपने वश में रहनेवाले (आत्मा को जाननेवाले) जीव को ही निश्चय-आवश्यक-कर्म होता है। जो अन्य के वश नहीं है, वह अवश' है और अवश का कर्म 'आवश्यक' है। शुभाशुभ भाव में रहनेवाला व द्रव्य-गुण-पर्याय के चिन्तन में मग्न आत्मा भी निश्चय से अन्यवश है, आत्मस्वरूप में संलग्न आत्मा ही स्ववश है। आगे कहते हैं कि जो जीव अन्यवश है वह भले ही मुनि हो, तथापि संसारी है। नित्य दुख भोगनेवाला है। जो जीव स्ववश है वह जीवन्मुक्त है। वह जिनेश्वर से किंचित् ही न्यून है, अतः सदा अपने वश में रहो, स्ववश रहो और आत्मा को जानो समझो। जगत में जीव, उनके कर्म और उनकी लब्धियाँ आदि अनेक प्रकार के हैं; इसलिए सभी जीव समान विचारों के हों-ऐसा होना सम्भव नहीं है, इसलिए किसी से भी विवाद मत करो। हमेशा अपनी आत्मा का समझो। हमेशा मौनव्रत धारण करो । योग-ध्यान की साधना करो। ज्ञानी वही है जो मौन रहकर आत्मकार्य करता है। आज तक जितने भी तीर्थंकर एवं पुराण पुरुष हुए हैं सभी ने मौन रहकर ही आवश्यक प्रतिक्रमण किया है। 12. शुद्धोपयोगाधिकार (गाथा 151-187) जिसमें कोई शुभ भी नहीं है, अशुभ भी नहीं है, वह है शुद्धोपयोग। 256 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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