SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चित सीमा बाँधना, मर्यादा करना 'दिग्व्रत' है । यह दिग्व्रत मरणपर्यन्त तक के लिए लिया जाता है। यह व्रत सूक्ष्म पाप को रोकने के लिए लिया जाता है । दिग्व्रत की मर्यादा करते समय किसी निश्चित या प्रसिद्ध स्थान का उल्लेख हो सकता है। जैसे— गंगा नदी के उस पार नहीं जाना, भारत के बाहर नहीं जाना आदि । दिग्व्रत के अतिचार - दिशाओं की मर्यादा लेने के बाद अज्ञान से या प्रमाद (आलस्य) से किसी भी दिशा में जाना दिग्व्रत में दोष लगाना है। आवश्यकता पड़ने पर क्षेत्र की सीमा बढ़ाना या पूर्व में लिए गये व्रत को भूल जाना दिग्व्रत के दोष हैं। ख. अनर्थदण्ड व्रत दूसरा व्रत है अनर्थदण्डव्रत । अनर्थदण्ड अर्थात् व्यर्थ में दोष लगाना । मर्यादा के भीतर के क्षेत्र में भी ऐसे कार्य करना जिनसे अपना कोई प्रयोजन ही न हो । व्यर्थ ही पाप करके दण्डं भुगतना पड़े वह अनर्थदण्ड व्रत है। अनर्थदण्डव्रत के पाँच प्रकार हैं 1. पाप की क्रियाओं का उपदेश देना । 2. हिंसक उपकरण (फरसा, तलवार आदि) किसी को दान देना । 3. बन्धन, मारने-पीटने, दूसरों की पराजय और स्त्री, धन आदि के बारे में सोचना। दूसरों का विनाश हो ऐसा सोचना । 4. जिससे आरम्भ हो, हिंसा हो, मिथ्यात्व हो, राग-द्वेष या कषायों की वृद्धि हो, ऐसे खोटे शास्त्रों को सुनना या पढ़ना। 5. बिना प्रयोजन हिंसक कार्य करना और कराना । 'अनर्थदण्डव्रत' जैन धर्म की एक बहुत बड़ी सुन्दर अवधारणा है। इसे अच्छे से समझने की जरूरत है। आचार्य इसे समझाते हुए कह रहे हैं कि व्यर्थ का पाप मत करो। जितनी जरूरत हो, उतना ही उपयोग करो। व्यर्थ की वस्तुएँ नष्ट न करो। इस व्रत को धारण करने की सभी को अत्यधिक आवश्यकता है। चूँकि 90 प्रतिशत व्यक्ति व्यर्थ के कामों और उपदेश में लगे रहते हैं। किसी को पाप की क्रियाओं का उपदेश भी नहीं देना चाहिए। अनर्थदण्डव्रत के पाँच अतिचार 1. अशिष्ट, अपशब्द बोलना । 114 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy