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________________ તપશ્ચર્યા उद्धार का विनय द्वार उदार भाता, होता यही सुतप-संयम-बोध-ध । आचार्य संघ भर की इससे सदा हो, आराधना, विनय से सुख सम्पदा है ॥ २० ॥ विद्या मिली विनय से इस लोक में भी, देती सही सुख वहाँ परलोक में भी । विद्या न पै विनय शून्य सुखी बनाती, शाली, बिना जल कभी फल फूल लाती ? ॥ २१ ॥ अल्पज्ञ किन्तु विनयी मुनि मुक्ति पाता, दुष्टाष्ट कर्म दल को पल में मिटाता । भाई अतः विनय को तज ना कदापि, सच्ची सुधा समझ के उसको सदा पी ॥ २२ ॥ जो अन्न पान शयनासन आदिकों को, देना यथासमय सज्जन साधुओं को । कारुण्य द्योतक यही भवताप हारी. सेवामयी सुतप है शिवसौख्य कारी ॥ २३ ॥ जो ब्रह्मचर्य रहना, जिन ईश पूजा, सारीकषाय तजना, तजना न ऊर्जा । ध्यानार्थ अन्न तजना "तप" ये कहाते । प्रायः सदा भविकलोग इन्हें निभाते ॥ २४ ॥ साधू विहार करते करते के हो, वार्धक्य की अवधि पे बस आ रुके हो । श्वानादि से व्यथित हों नृप से पिटाये, दुर्भिक्ष रोग वश पीडित हों सताये ॥ रक्षा सँभाल करना उनकी सदैवा, जाता कहा "सुतप" तापस साधु सेवा ॥ २५ ॥ પરપ પ્રકરણ ६
SR No.023263
Book TitleTapascharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanmuni
PublisherAjaramar Active Assort
Publication Year2014
Total Pages626
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
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