SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 537
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ તપશ્ચર્યા ५४२९५ - ६ स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में कभी हुआ है , न वर्तमान में कहीं है, और न भविष्य में कभी होगा। ६८. जो वि पगासो बहुसो गुणिओ पच्चक्खंओ न उवलद्धो। जच्चंवस्स व चंदो फुडो वि संतो तहा स खलु ॥ - बृहत्कल्प भाष्य १२२४ शास्त्र का बार बार अध्ययन कर लेने पर भी यदि उससे अर्थ की साक्षात् अनुभूति न हुई हो तो वह अध्ययन वैसा ही अप्रत्यक्ष रहता है जैसा कि जन्मांघ के चन्द्रमा प्रकाशमान होते हुए भी अप्रत्यक्ष ही रहता है। ६९. णाणं पि काले अहिज्जमाणं णिज्जरा हेऊ भवति । अकाले पुण उवघायकरं कम्म बंधाय भवति ॥ -निशीथ चूर्णि ११ शास्त्र का अध्ययन उचित समय पर किया हुआ ही निर्जरा का हेतु होता है, अन्यथा वह हानिकार तथा कर्म बंध का कारण बन जाता है। ध्यान : ७०. चित्तस्सेग्गया हवइ झाणं । - आवश्यकनियुक्ति १४५६ किसी एक विषय पर चित्त को एकाग्र स्थिर करना ध्यान कहलाता है। ७१. एकाग्रचिन्ता योगनिरोधो वा ध्यानम् । -जैनसिद्धान्तदीपिका ५/२८ एकाग्र चिन्तन एवं मन, वचन-काया की प्रवृत्ति रुप योगो को रोकना ध्यान है। ७२. झाणपिलीणो साहु, परिचाणं कुणइ सव्व दोषाणं । तम्हा दु झाणमेयट्टि सव्वदिचारस्स पटिक्कमणं ॥ - नियमसार ५३७ ध्यान में तीन साधक ... दोनो का निवारण कर सकता है। वह ध्यान ही सब अधिकारों का प्रतिवचन
SR No.023263
Book TitleTapascharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanmuni
PublisherAjaramar Active Assort
Publication Year2014
Total Pages626
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy