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________________ તપશ્ચર્યા પ્રકરણ - ૬ विनय : ४९. रायणिएसु विणयं पउंजे। - दशवैकालिक ८४१ अपने से बड़ो (....) के नाम सदा विनय पूर्वक अपहार करना चाहिए। ५०. ये आचार्य-उपध्यायं सुश्रूषा वयणं करे । वेनिं जिकना पक्ड्इंति गत....इव पायया ॥ - दशवकालिक ४/२/१२ जो अपने आचार्य-उपाध्याय आदि की विनयपूर्वक शुश्रूषा सेवा तथा आज्ञाओं का पालन करता है, उनकी शिक्षाएँ (विद्याएँ) वैसे ही बढ़ती है जैसे कि जल से सींचे जाने पर वृक्ष । ५१. विवत्ती अविणीयस्स, सम्पत्ती विणीयस्स य । - दशवैकालिक ९/२/२२ अविनीत विपत्ति (दुःख) का भागी होता है और विनीत सम्पत्ति (सुख) का । ५२. जो छंदं आराहयई स पुज्जो। - दशवैकालिक ९/३/१ जो गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है वही शिष्य पूज्य होता है। ५३. आणा निद्देसकरे, गुरुणमुववाय कारए । इंगियागारसम्पन्ने से विणीए त्ति वच्चई ।। - उत्तराध्ययन १/२ जो गुरुजनों की आज्ञाओं का पालन करता है, उनके निकट सम्पर्क में रहता है, एवं उनके हर संकेत व चेष्टा के प्रति सजाग रहता है - उने विनीत कहा जाता है। ५४. विणओ वि तवो, तवो पि धम्मो । -प्रश्नव्याकरण सूत्र २/३ विनय स्वयं एक तप है, और वह श्रष्ठ धर्म है। GER
SR No.023263
Book TitleTapascharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanmuni
PublisherAjaramar Active Assort
Publication Year2014
Total Pages626
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
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