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का इतिहास पूर्ववर्ती मध्य कालान्तर्गत ग्राह्य है और विक्रम की सतरहवीं से अठारहवीं शदी तक का इतिहास परवर्ती मध्य कालान्तर्गत विवेच्य है। यह मध्ययुगीन काल खरतरगच्छ का उत्कर्ष युग है।
विक्रम की उन्नीसवीं से इक्कीसवीं शदी का इतिहास हम वर्तमान कालान्तर्गत स्वीकार करके विवेचन करेंगे।
प्रस्तुत ग्रन्थ में हम खरतरगच्छ के उस इतिहास का अनुशीलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे, जो आदिकाल से सम्बद्ध है। खरतरगच्छ का आदिकाल
खरतरगच्छ का आदिकाल विक्रम की ग्यारहवीं शदी से तेरहवीं शदी का है। यह समय क्रान्ति का युग था। उस समय खरतरगच्छ ने तमस् के साये में ढकी जा रही दुनिया को अभिनव ज्योति प्रदान की। जैन धर्म विश्व के लिए एक आदर्श रहा है। काल के दुष्प्रभाववश या समाज की आन्तरिक कमजोरियों के कारण वे आदर्श जर्जरित और विशृंखलित हो गए। उस परिस्थिति में जीनेवाले मुनिजन चैत्यवासी कहलाते थे। खरतरगच्छ चैत्यवास का प्रबल विरोधक बनकर उपस्थित हुआ और उसने समाज के सामने ज्योतिर्मय जीवनमूल्यों की मशाल जलाकर संसार को सम्यग्मार्ग-दर्शन दिया। चैत्यवासी-परम्परा
चैत्यवासी परम्परा का अस्तित्व कई सदियों तक रहा। इसका प्रभाव आकस्मिक न होकर अनुक्रमिक है । चैत्यवास मुख्यतः सुविधावाद या परम्परागत भाषा में शिथिलाचार का प्रतिनिधित्व करता है। आचार्य देवधि गणि के बाद विक्रम की ग्यारहवीं शदी तक यह परम्परा क्रमशः व्यापक रूप से फैली। ........
चैत्यवास की प्रारम्भिक अवस्था को प्रस्तुत करने के लिए सामा