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गच्छ में प्रति चौथे पट्टधर का नाम यही रखे जाने की परम्परा इन्हीं से प्रचलित होने का पट्टावलियों में उल्लेख है ।
सं० १२६४ में अंचलगच्छ के आचार्य श्री महेन्द्रसूरि विरचित शतपदी प्रथ में जिनचन्द्रसूरि के लिये तीन बातें लिखी हैं, वे इस प्रकार हैं
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१. एक पट्ट मां नवग्रह, ५. लोकपाल, यक्ष, यक्षिणी, क्षेत्रदेवता, चैत्यदेवता, शासनदेवता, साधर्मिकदेवता, भद्रकदेवता, आगन्तुक देवता तथा ज्ञान, दर्शन, अने चारित्रना देवता एवं २५ देवता नी कुल कुटी ऊभी करी ।
२. जिनदत्तसूरि चैत्यमां नानी के वृद्ध वैश्या ने नचाववुं ठेहरावी, युबान वेश्या तथा गानारी स्त्रियों नु निषेध कर्यो पण जिनचन्द्रसूरिए art वेश्यानु निषेध क्यों ।
३. जिनदत्तसूरि श्राविका ने मूल प्रतिमा ने अड़कवुं निषेध्युं छे पण जिनचन्द्रसूरिए तो एम ठहेराव्युं के श्राविकाओ सर्वथा शुचि नहीं अ होय माटे तेमणे कोई पण प्रतिमा ने नहीं अड़कबुं । '
प्रतिबोध एवं गोत्र - स्थापन
मणिधारी आचार्य जिनचन्द्रसूरि एक अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न आचार्य माने गये हैं। छोटी उम्र की बड़ी सफलता - यही इनके व्यक्तित्व की विशेषता है । राजपूत क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर उन्हें अहिंसा तथा शान्ति के मार्ग का अनुरागी बनाने में इन्हें अप्रतिम सफलता प्राप्त हुई थी । खरतरगच्छ के प्रत्येक आचार्य ने ऐसे कार्यों को सर्वतोभावेन सम्पूर्ण करने का प्रयास किया । मणिधारी ने जनप्रतिबोध के अन्तराल में जिन-जिन गोत्रों का परिनिर्माण किया, उसकी संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है
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१ शतपद, जिनचन्द्रसूरि नी आचरणाओ, पृष्ठ १५२
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