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श्रिये वृत्त नतानन्दा विशेषवृषसंगताः ।
भवन्तु भवतां भूप! ब्रह्मश्रीधर शंकराः॥ अर्थात् हे राजन् भक्तों को आनन्द देनेवाले और क्रमशः गरुड़, शेषनाग और वृषभ पर सवारी करने वाले ब्रह्मा, विष्णु और शंकर आप के लिए कल्याणकर हों।
एक जैनाचार्य द्वारा जैनेतर मान्य देवों का इस प्रकार उल्लेख करना यह कोई सामान्य बात नहीं हैं। यह वस्तुतः उनकी सर्वधर्म समभाव है।
अजमेर में जिनदत्तसूरि के ठाकुर आशधर, रासल, साधारण इत्यादि श्रावक विशेष भक्तों में से थे। अजमेर में निर्माणाधीन जिन मन्दिर में आचार्य के आदेश से ठाकुर आशधर ने विशेष वित्त प्रदान किया था। जिनदत्तसूरि ने अजमेर से बागड़देश की ओर पाद-विहार किया। बागड़देश में उन्होंने अनेक धर्मोद्योतकर कार्य किये। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अनेक लोगों ने सम्यक्त्वव्रत, देशविरतिव्रत, सर्वविरति-व्रत, दीक्षा-व्रत, उपसम्पदाएँ आदि स्वीकार किये। प्राप्त उल्लेखों के अनुसार उस देश में जिनदत्तसूरि के सान्निध्यमें साध्वीदीक्षा हुई और मुनि जिनशेखर को उपाध्याय-पद से विभूषित कर उन्हें मुद्रपल्लीय क्षेत्रों में धर्मप्रचार के लिए भेज दिया गया। ___ मरुदेश से विहार करके जिनदत्तसूरि त्रिभुवनगिरि ( तहनगढ़) पधारे, जहाँ उन्होंने महाराजा कुमारपाल यादव को प्रतिबोध देकर जैनमुनियों के सम्बन्ध में लगाये प्रतिबन्धों को हटाया। ऐसा संकेत हमें 'गुरु गुणषट्पद' में प्राप्त होता है।
अनुक्रमशः रूद्रपल्ली, विक्रमपुर, उच्चनगर, नवहर, उज्जयनी, चित्रकूट (चित्तौड़) प्रभृति प्रमुख नगरों में शासन-प्रभावना करते हुए जिनदत्तसूरि ने खरतर विधिपक्ष का प्रबलवेग से प्रसार किया तथा बहुत-से विधिचैत्यों का परिनिर्माण कराया एवं प्राण-प्रतिष्ठा करवाई। १ ऐतिहासिक जैनकाब्य संग्रह, गुरु गुण षट्पद, पृ० २
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